धर्म युक्त हो हमारा हर व्यवहार: आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

उरण, 6 फरवरी, 2024

धर्म युक्त हो हमारा हर व्यवहार: आचार्यश्री महाश्रमण

तेरापंथ के आचार्य का पहली बार हुआ उरण में पदार्पण

उरण, 6 फरवरी, 2024
बृहत्तर मुंबई में यात्रायित तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशम् अधिशास्ता आचार्यश्री महाश्रमण जी आज नवी मुंबई के उरण क्षेत्र में द्विदिवसीय प्रवास हेतु पधारे। तेरापंथ के इतिहास में युवाचार्य एवं आचार्य के रूप में उरण की धरती पर पहली बार पधारने वाले आचार्यश्री महाश्रमण जी ही हैं। आगम वाणी का रसास्वाद कराते हुए आचार्यप्रर ने फरमाया कि जीवन में व्यवहार का प्रयोग आमतौर पर करना होता है। चलना, खाना, बोलना, सोचना, बैठना, सोना आदि अनेक प्रवृत्तियाँ हमारे जीवन में चलती हैं, इन प्रवृत्तियों के साथ धर्म जुड़ जाए तो हमारा व्यवहार धर्म युक्त बन सकता है।
चलने के समय जीव हिंसा से बचा जाए तो अहिंसा धर्म का पालन हो सकता है। चलते समय भी यदि विचारों के प्रवाह में ज्यादा न बहें, सप्रयास विचार न करें, तो भाव क्रिया की स्थिति बन सकती है। साधु के तो ईर्या समिति ध्यातव्य है, गृहस्थ भी जीव हिंसा न हो जाए, इस बात का ध्यान रखें। चलते समय इधर-उधर ना देखें, बातें नहीं करें और चलते हुए खाना भी नहीं खाएँ। मन, वचन और काया का संयम रखें तो अहिंसा धर्म की साधना हो सकती है। बोलने के साथ भी धर्म को जोड़ने का प्रयास करें। अनावश्यक न बोलें, कटुभाषा न बोलें, झूठी बात न बोलें। इन तीनों का संकल्प होने से बोलने के साथ भी धर्म जुड़ सकता है।
भोजन के प्रति आसक्ति न हो, द्वेष भी न हो। भोजन के समय राग-द्वेष मुक्ति, शांति, अनावश्यक खाने से बचाव, उणोदरी आदि प्रयोगों से भोजन के साथ भी धर्म को जोड़ा जा सकता है। जहाँ तक हो सके भोजन के समय मौन रहें, टीवी आदि का प्रयोग करने से भी बचें। सोचने में भी संयम को जोड़ दें, एक नियत समय में सोचें। अनावश्यक दिमाग पर भार न हो जाए, इसलिए दिन भर न सोचें, समय निर्धारित कर लें। चिंतन और निर्णय आवेश की स्थिति में नहीं करें, शांति की अवस्था में सोचें। चिंतन के द्वारा भी किसी का बुरा न सोचें, आक्रोश का भाव न रहे। युक्ति संगत चिंतन करें और साथ में परिणामों की संभावना पर ध्यान दें। चिंतन, निर्णय और क्रियान्विति साथ में जुड़े रहें। लेटना है तो भी धर्म को जोड़ दें। कायोत्सर्ग का प्रयोग, श्वास पर चित्त को केंद्रित करना आदि प्रयोगों से लेटना भी कुछ अधिक उपयोगी हो सकता है। बैठने के समय मुद्रा, रीढ़ की हड्डी, उचित विधि पर ध्यान दें। इस प्रकार हमारा हर व्यवहार धर्मयुक्त हो, ऐसा हमारा प्रयास रहना चाहिए।
साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभा जी ने अपने मंगल उद्बोधन में कहा कि आकाश में सैकड़ों सूरज-चंद्रमा उदित हो जाएँ और वे प्रकाश करें, किंतु वह प्रकाश गुरु द्वारा प्रदत्त प्रकाश के समक्ष सीमित होता है। जो प्रकाश हमें गुरु द्वारा प्राप्त होता है वैसा किसी के द्वारा प्राप्त नहीं हो सकता। गुरु अज्ञान के अंधकार का नाश करने वाले, ज्ञान का प्रकाश करने वाले होते हैं। गुरु शिष्य की संभावनाओं को परखकर उसकी क्षमताओं को जागृत करते हैं। उसे शक्ति का बोध देते हैं, मार्गदर्शन करते हैं, उसके भाग्य को सँवारते हैं, विकास का चिंतन करते हैं, दूषित वृत्तियों को दूर करते हैं और चेतना को निर्मल बनाते हैं। हमें गुरु की आराधना करनी चाहिए, गुरु की दृष्टि के अनुसार अपनी दृष्टि का निर्माण कर लेना चाहिए, इंगित के अनुसार कार्य करना चाहिए और गुरु के चिंतन की क्रियान्विति कर स्वयं को धन्य बनाना चाहिए। पूज्यप्रवर के स्वागत में स्थानीय सभाध्यक्ष भैरूलाल धाकड़ ने अपने हृदयोद्गार व्यक्त किए। तेरापंथ महिला मंडल ने गीत की प्रस्तुति दी। समणी निर्मलप्रज्ञा जी ने भी अपनी भावना अभिव्यक्त की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।