संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

बंध-मोक्षवाद
ज्ञेय-हेय-उपादेय
 
भगवान् प्राह
 
बारह भावनाएँ
 
(पिछला शेष)  जड़ में भी यही परिवर्तन मिलता है। मिट्टी के अनेक आकार बनते हैं और बिगड़ते हैं। सोने की कितनी अवस्थाएँ होती हैं। लेकिन स्वर्णत्व सब में वैसा ही रहता है। एक व्यक्ति सोने का घड़ा लेना चाहता है, एक व्यक्ति मुकुट और एक व्यक्ति केवल सुवर्ण। सोने का घड़ा बनने पर एक को प्रसन्नता होती है और मुकुटवाले को विषाद। लेकिन सुवर्णवाले व्यक्ति को न प्रसन्नता है, न विषाद। स्वर्ण ध्रौव्य है। घट और मुकुट उनकी अवस्थाएँ हैं। पुद्गलµजड़ के गुण किसी भी दशा में मिटते नहीं। मिट्टी भले सोने के रूप में परिणत हो जाए, शरीर चिता में जलकर राख भी क्यों न बन जाए, इन सबमें वर्ण, गंध, रस, स्पर्शµये सदा अवस्थित रहेंगे। एक परमाणु से लेकर अनंत परमाणुओं के स्कंध में भी इनकी अवस्थिति है।
संसार की अपेक्षा से मुक्त होने वाले जीव कम हो जाते हैं। वे अपने परमात्म-स्वरूप को पाकर जन्म और मृत्यु के घर को लाँघ जाते हैं। किंतु इससे आत्मा की संख्या में कोई कमी नहीं होती। आत्मत्व यहाँ और वहाँ सतत विद्यमान रहता है। संसारी आत्माएँ अनंत हैं और मुक्त आत्माएँ भी अनंत हैं। मुक्त जीवों की अपेक्षा संसारी जीव सदा अनंत रहे हैं और रहेंगे। संसार कभी शून्य नहीं होगा। मुक्ति जाने के योग्य जीव भी सदा यहाँ मिलते रहेंगे।
श्राविका जयंती के प्रश्न से इनका स्पष्ट हल सामने आ जाता है। जयंती ने भगवान् महावीर ने पूछाµ‘भगवन्! क्या सभी जीव मुक्त हो जाएँगे? यदि सभी मुक्त हो जाएँगे तो संसार जीवशून्य हो जाएगा।’ भगवान् ने कहाµ‘ऐसा नहीं होता। मोक्ष में वे ही जीव जाते हैं, जो भव्य होते हैं। इससे एक प्रश्न और पैदा हो जाता है कि भव्य जीव सब मोक्ष में चले जाएँगे, तो क्या संसार भव्य-शून्य नहीं हो जाएगा?’ लेकिन वैसी अनुकूल स्थिति उत्पन्न होने पर ऐसा होता है। सबको ऐसे अवसर सुलभ नहीं होे।’
 
मेघः प्राह
 
(83) कथं चित्तं न जानाति? कथं जानन् न चेष्टते?
चेष्टमानं कथं नैति, श्रद्धानं चरणं विभो।।
 
मेघ बोलाµप्रभो! चित्त क्यों नहीं जानता? जानता हुआ उद्योग क्यों नहीं करता? उद्योग करता हुआ भी वह श्रद्धा और चारित्र को क्यों नहीं प्राप्त होता?
 
आत्मा ज्ञानमय है। मन को सब कुछ बोध होना चाहिए। उसके लिए यह अज्ञेय क्यों है कि वह कहाँ से आया है? कहाँ जाएगा? भविष्य की घटनाएँ क्यों अज्ञात रहती हैं? मेघ के मन में ये ही कुछ आशंकाएँ हैं। ज्ञान की पूर्णता, श्रद्धा और आचरण के विकास में कौन बाधक है?
 
भगवान् प्राह
 
(84) आवृतं नहि जानाति, प्रतिहतं न चेष्टते।
मूढं विकारमाप्नोति, श्रद्धायां चरणेऽपि च।।
 
भगवान् ने कहाµजो चित्त आवृत्त होता है, वह नहीं जानता। जो चित्त प्रतिहत होता है, वह उद्योग नहीं करता। जो चित्त मूढ होता है, वह श्रद्धा और चारित्र को प्राप्त नहीं होता।
 
मेघः प्राह
 
(85) केन स्यादावृत्तं चित्तं? केन प्रतिहतं भवेत्?
मूढं च जायते केन? ज्ञातुमिच्छामि सर्ववित्!
 
मेघ बोलाµहे सर्वज्ञ! चित्त किससे आवृत होता है? किससे प्रतिहत होता है? और किससे मूढ बनता है? यह मैं जानना चाहता हूँ।
 
(क्रमशः)