आत्म युद्ध से भीतर के कषायों को करें परास्त : आचार्यश्री महाश्रमण
खारघर, मुम्बई।
२३ फरवरी, २०२४
जन-जन के उद्धारक आचार्य श्री महाश्रमण जी आज प्रातः खारघर पधारे। मंगल पाथेय प्रदान कराते हुए आचार्यप्रवर ने फरमाया कि धर्मशास्त्र में आत्मयुद्ध की बात बतायी गई है। दुनिया में बाहर के युद्ध भी चलते हैं। वे युद्ध भी बाहर होने से पहले आदमी के दिमाग में होता है। युद्ध के भाव आते हैं, योजना बनती है, फिर वह समारंगण का रूप लेता है। अहिंसा व अपरिग्रह की ऐसी चेतना आदमी में रहे कि युद्ध को मौका ही न मिले।
युद्ध परिग्रह की चेतना या अन्य किसी कारण से हो सकता है। हम आत्म युद्ध की बात करें, स्वयं में जो दोष हैं, विकार हैं, विजातीय तत्त्व हैं उन्हें बाहर निकालने की चेष्टा करें। विजातीय तत्त्वों की जड़ें इतनी गहरी होती है कि उनको निकालना कठिन भी हो सकता है। धर्मयुद्ध-आत्मयुद्ध के द्वारा उन दोषों को बाहर निकालने का प्रयास किया जा सकता है। नौ तत्त्वों में संवर और निर्जरा, ये दो मानो युद्ध की सामग्री है। संवर के द्वारा अपनी सुरक्षा करना और निर्जरा- तपस्या के द्वारा पूर्वार्जित कर्मों को तोड़ना, मोहमय संस्कारों को निर्वीर्य बनाना, कमजोर बनाना, कर्मों को क्षीण करना।
हमारा आत्मयुद्ध मुख्यतया माेहनीय कर्म के साथ होना चाहिये। यह हमारी चेतना को विकृत बनाने वाला होता है। क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष आदि ये सारी मोहनीय कर्म से होने वाली विकृतियां हैं। युद्ध करने के लिए शस्त्र की आवश्यकता भी होती है। मोहनीय कर्म के मूल चार अंग है- क्रोध, मान, माया, लोभ। इनसे युद्ध करने के उपाय इस प्रकार बताए गए हैं-
lगुस्से को जीतने के लिए उपशम की साधना की जाये।
lअहंकार को जीतने के लिए मार्दव का प्रयोग किया जाये।
lमाया को जीतने के लिए आर्जव-ऋजुता का अभ्यास किया जाये।
lलोभ को जीतने के लिए संतोष की साधना की जाये।
यह धर्म युद्ध है, यहां तो मैत्री और अहिंसा की बात है। युद्ध तो अपनी ही आत्मा के साथ करना है। हमारे तीर्थंकरों ने यह धर्म युद्ध किया था। भगवान महावीर ने लगभग १२.५ वर्षों तक एक विशेष साधना की, वह उनका आत्म युद्ध था और युद्ध करते-करते वैशाख शुक्ला दशमी का एक ऐसा दिन आया जब उन्हें इतनी बड़ी सफलता मिली कि मोहनीय कर्म पूर्णतया क्षीण हो गया। आठ कर्मों में सेनापति मोहनीय कर्म होता है। मोहनीय कर्म के जाने के बाद केवलज्ञान-केवलदर्शन की प्राप्ति हो गई।
साधु साधना करते हैं, पर गृहस्थ भी जितना संभव हो उतना अध्यात्म की आराधना का अभ्यास करे। हमारा त्रि-सूत्री कार्यक्रम है- सद्भावना, नैतिकता और नशा मुक्ति। बहुत बड़ा आत्म युद्ध तो हर कोई कर पाए या नहीं पर इन सूत्रों को अपनाकर भी गृहस्थ अपना जीवन अच्छा बना सकते हैं। इनसे अपराध भी कम हो सकेंगें, स्वस्थ समाज का निर्माण हो सकता है, व्यक्ति-समाज-राष्ट्र-विश्व भी स्वस्थ हो सकते हैं। शरीर की स्वस्थता के साथ मन और भाव भी स्वस्थ रहें। आत्मयुद्ध अध्यात्म की साधना का उपाय है जिससे भीतर के कषायों को परास्त करने का प्रयास करें। विजातीय तत्त्वों से हमारी आत्मा मुक्त हो जाए।
हमारा परम लक्ष्य मोक्ष है उसके लिए आत्मा की शुद्धि जरूरी है। आवेश-आवेग हमारे भीतर नहीं उभरे। इस जन्म में ज्यादा से ज्यादा कषायों को दूर या कम करने का प्रयास हो। हमारा भीतर का प्रदूषण दूर हो, और एक दिन ऐसा आते कि हमारी चेतना पूर्णतया दोषमुक्त-विकारमुक्त हो जाए।
दुनिया का भाग्य है कि संत हमेशा दुनिया में रहते हैं । संतों से सन्मार्ग दर्शन मिलता है, ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त होता है। हमारे शास्त्रों में कितनी ज्ञान की बातें बतायी गयी है। धर्मयुद्ध-आत्मयुद्ध की बात भी आगमों में बतायी गयी है। हम परम सुख को पाने की दिशा में आगे बढ़े।
साध्वी प्रमुखाश्री विश्रुतविभाजी ने अपने उद्बोधन में कहा कि हम जिस जगत में जी रहें हैं वह समस्या संकुल जगत है। सामाजिक, पारिवारिक, राजनीतिक, व्यवसायिक हर क्षेत्र समस्या से जूझ रहा है। समस्याओं को पैदा करने वाला व्यक्ति स्वयं होता है। हम समस्याओं को दूर करने का प्रयास करें। सम्यक् ज्ञान व सम्यक् दर्शन से हम समस्या को समाधान में बदल सकते हैं। जिस व्यक्ति को सम्यक् दर्शन प्राप्त हो जाता है, वह मोक्ष जाने का अधिकारी हो जाता है।
पूज्य प्रवर के स्वागत में सभा अध्यक्ष सुरेश पटवारी, धनंजय सोमानी, विधायक प्रशान्त ठाकुर ने अपनी अभिव्यक्ति दी। तेरापंथ महिला मंडल ने स्वागत गीत का संगान किया। ज्ञानशाला के ज्ञानार्थियों ने अपनी भावपूर्ण प्रस्तुति दी। तेयुप के अध्यक्ष लोकेश चोरड़िया एवं तेरापंथ किशोर मंडल ने पृथक पृथक गीत की प्रस्तुति दी। कन्या मंडल ने प्रस्तुति दी।
कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमार जी ने किया।