धर्म है उत्कृष्ट मंगल
(िपछला शेष)
अशुभ योग निरुद्ध हो जाने से निवृत्ति हो जाएगी। प्रवृत्ति बन्द हो जाएगी, ऐसा नहीं माना जा सकता। योगों की अशुभता दूर होती है, एक सीमा तक रागात्मक व द्वेषात्मक परिणाम रुकते हैं। उससे अव्रत आश्रव रुकता है। अशुभ योग को रोकने से योग निरोध नहीं होता, रागद्वेषात्मक परिणामों का सीमित निरोध होता है। अशुभ योग शुभ योग में परिवर्तित हो जाता है। योग निरोध कहां हुआ? योग निरोध या अयोग तब होता है जब अशुभयोग निवृत्ति के बाद शुभयोग की भी निवृत्ति हो। यह स्थिति पूर्णरूपेण चौदहवें गुणस्थान में निष्पन्न होती है। साधु उपवास, बेला आदि तपस्या करता है तो उसके निरवद्य योग के निरोध से सहचारी संवर भी होता है। इसे आंशिक अयोग संवर कहने में आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
श्रावक कर्मक्षय के लिए उपवास आदि तपस्या करता है तो सावद्य योग का निरोध होने से उसके सहचारी व्रत संवर होता है।
श्रावक के सारे पौद्गलिक भोग मन-वचन-काय के सावद्य व्यापार हैं। उनका प्रत्याख्यान करने से व्रत संवर अंशतः निष्पन्न होता है और सहचारी तप भी होता है।
साधु का चलना, फिरना आदि व्यापार, यदि वह उपयोग सहित किया जाए तो, निरवद्य योग है। उनका निरोध करने के अनुपात से संवर होता है और साथ-साथ तपस्या भी होती है।
संवर का विषय बहुत गम्भीर और अति उपयोगी है। गहन चिन्तन-मनन और अनुप्रेक्षा से नई दृष्टि अनावृत हो
सकती है।
(६) निर्जरा : एक विश्लेषण
जैन दर्शन में षड्द्रव्य और नवतत्त्व– पदार्थ के दो वर्गीकरण उपलब्ध हैं। षड्द्रव्य का सिद्धांत विश्व व्यवस्था को व्याख्यायित करता है और नवतत्त्व अध्यात्म के साधक-बाधक तत्त्वों का निरूपण करता है। षड्द्रव्य के केन्द्र में है विशव व्यवस्था और नवतत्त्व के केन्द्र में है अध्यात्म।
नवतत्त्व में सातवां तत्त्व है- निर्जरा। इसका स्वरूप है तपस्या से होने वाला आत्मा का शोधन। निर्जरा और मोक्ष दोनों में कर्मक्षय होता है। आंशिक कर्मक्षय निर्जरा और सम्पूर्ण कर्मक्षय मोक्ष कहलाता है।
नवतत्त्व में सातवां तत्त्व है- निर्जरा। इसका स्वरूप है तपस्या से होने वाला आत्मा का शोधन। निर्जरा और मोक्ष दोनों में कर्मक्षय होता है। आंशिक कर्मक्षय निर्जरा और सम्पूर्ण कर्मक्षय मोक्ष कहलाता है।
निर्जरा के दो प्रकार हैं- सकाम और अकाम। आत्मशुद्धि की भावना से की जाने वाली निर्जरा सकाम और उसके बिना होने वाली निर्जरा अकाम कहलाती है। दोनों ही प्रकार की निर्जरा सम्यग् दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों प्रकार के जीवों के हो सकती है।
आचार्य उमास्वाति ने निर्जरा के दो भेद किये हैं-अबुद्धिपूर्वा निर्जरा और कुशलमूला निर्जरा। कर्मों के फल-विपाक से सहजतया जो कर्मों की निर्जरा होती है वह अबुद्धिपूर्वा निर्जरा है। इसमें कर्म-निर्जरण का इरादतन प्रयास नहीं होता। इस प्रकार की निर्जरा को अकुशलानुबन्धा भी कहा जाता है। आत्मशुद्धि के उद्देश्य से की जाने वाली तपस्या और परीषहजय से होने वाली निर्जरा कुशलमूला कहलाती है।
कुशलमूला निर्जरा भी दो प्रकार की होती है- शुभानुबन्धा और निरनुबन्धा। जिस निर्जरा का फल स्वर्ग आदि सुगति हो, वह शुभानु- बन्धा निर्जरा है। जो साक्षात् मोक्ष का कारण बने वह निरनुबन्धा निर्जरा है। अकामनिर्जरा की अबुद्धिपूर्वा और सकामनिर्जरा की कुशलमूला के साथ तुलना की जा सकती है।
निर्जरा वास्तव में एकाकार है, एक ही प्रकार की है। विभिन्न दृष्टिकोणों से उसके अनेक वर्गीकरण भी किए जा सकते हैं। निर्जरा ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों की होती है इसलिए वह आठ प्रकार की होती है।अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचरी, रसपरित्याग, कायक्लेश, प्रतिसंलीनता, प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग ये बारह प्रकार भी निर्जरा के कहे गए हैं।
गाढ़ बन्धन से बद्ध कर्मो की निर्जरा अल्प तथा शिथिलबन्धन से बद्ध कर्मो की निर्जरा अधिक होती है।
वेदना को सहने से भी निर्जरा होती है। किन्तु निर्जरा के तारतम्य में वेदना की अधिकता या अल्पता मुख्य कारण नहीं है। उसका मुख्य कारण है कष्ट को सहने की पद्धति । प्रतिमाधारी मुनि महान् वेदना को समभाव से सहन करता है इसलिए उसमें महानिर्जरा होती है। सप्तम नरक के नैरयिक के भी महावेदना होती है पर उसको समभाव से न सहने के कारण निर्जरा अल्प होती है।
निर्जरा का मूल हेतु है प्रशस्त अध्यवसाय एवं शुभ योग। निर्जरा की अल्पता या बहुलता उसी पर निर्भर है। तत्त्वार्थ सूत्र में अध्यवसाय के प्रकर्ष के आधार पर निर्जरा के तारतम्य का प्रतिपादन किया गया है:-