
धर्म है उत्कृष्ट मंगल
(िपछला शेष)
सम्यक् दृष्टि - सातिशय मिथ्यादृष्टि से असंख्य गुण अधिक निर्जरा।
• देशविरत - सम्यग्दृष्टि से असंख्य गुण अधिक निर्जरा।
• सर्वविरत - देशविरत से असंख्य गुण अधिक निर्जरा।
• अनन्त वियोजक - सर्वविरत से असंख्य गुण अधिक निर्जरा।
• दर्शन मोहक्षपक - अनन्त वियोजक से असंख्य गुण अधिक निर्जरा।
• उपशमक - दर्शन मोहक्षपक से असंख्य गुण अधिक निर्जरा।
उपशान्तमोह - उपशमक से असंख्य गुण - अधिक निर्जरा।
• क्षपक - उपशांतमोह से असंख्य गुण अधिक निर्जरा।
• क्षीण मोह- क्षपक से असंख्य गुण अधिक निर्जरा।
जिन - क्षीणमोह से असंख्य गुण अधिक निर्जरा।
सातिशय मिथ्यादृष्टि - अपूर्वकरण के अन्तिम समय में विद्यमान विशुद्ध मिथ्यादृष्टि।
अनन्त वियोजक - श्रेणी-आरोहण के लिए सम्मुख सम्यग दृष्टि वाला जीव जो अनन्तानुबन्धी कषाय को अप्रत्याख्यानावण अथवा प्रत्याख्यानावरण अथवा संज्चलनरूप परिणत कर देता है। इसी क्रिया को अनन्तानुबन्धी वियोजन कहते हैं।
दर्शनमोहक्षपक - जो दर्शनमोहनीय कर्म का क्षय कर क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त हो चुका है।
मोहोपशमक - उपशम श्रेणी के आठवें, नौवें, दसवें गुणस्थान वाले जीव।
उपशांतमोह - ग्यारहवें गुणस्थान वाला जीव।
मोहक्षपक - क्षपकश्रेणी के आठवें, नवें, दसवें गुणस्थान वाला जीव।
क्षीणमोह - बारहवें गुणस्थान वाला जीव।
जिन- तेरहवें-चौदहवें गुणस्थान वाले जीव।
शुभयोग अथवा तपोयोग से निर्जरा के साथ पुण्य का बन्ध भी होता है। पर उद्देश्य आत्मशुद्धि का ही होना चाहिए, पुण्य बन्ध का नहीं।
आचार्य भिक्षु ने प्रेरणा के स्वर में कहा है-
वंछा कीजै एक मुगत री, और वंछा न कीजे लिगार।
जे पुन तणी वंछा करे, ते गया जमारो हार।।
एक मुक्ति की ही कामना करनी चाहिए। तपस्या में पुण्य (भौतिक सुखों) की कामना नहीं करनी चाहिए। जो पुण्य की वांछा करते हैं वे अमूल्य अवसर को खो देते हैं।
7. सत्य शोध का यात्रा पथ
गन्तव्य की प्राप्ति से पूर्व उसका निर्धारण आवश्यक है। मार्ग लम्बा हो या छोटा, उसका सही ज्ञान और समुचित गतिशीलता गन्ता को गन्तव्य से मिला देती है। गतिशीलता का महत्त्व है परन्तु वह गन्तव्य पर आधारित है। यदि हमारा गन्तव्य/लक्ष्य महत्त्वपूर्ण है तो गतिशीलता भी महत्त्वपूर्ण है। लक्ष्य-निर्धारण हो जाने के बाद भी आलस्य और प्रमाद व्यक्ति को गतिशील और क्रियाशील नहीं बनने देता। समीचीन पुरुषार्थ हो तो गन्तव्य निकट होता चला जाता है।
सीता का हरण हो गया था। उसकी खोज की प्रक्रिया चल रही थी। विद्याधर रत्नजटी के माध्यम से यह पता राम को हो गया था कि सीता का हरण रावण ने किया है। राम के सामने अब लंका से सीता की प्राप्ति का लक्ष्य था। उन्होंने सुग्रीव से पूछा- सुग्रीवजी! यहां से लंका कितनी दूर है? सुग्रीवजी ने पौरुषवर्धक उत्तर दिया- 'महाराज! आलसी लोगों के लिए बहुत दूर है और पुरुषार्थी के लिए बिल्कुल निकट है।' इस संवाद को जैन रामायण में एक पद्य में प्रस्तुत किया गया है-
राम पुछै सुग्रीव नै, लंका केती दूर।
आलसियां अलगी घणी, उद्यमवंत हुजूर ।।
मार्ग में गत्यवरोध भी आ सकते हैं। उन्हें उत्साह और साहस के साथ पार करना होता है। कहीं अपमान मिलता है, कहीं निराशा का कुहासा सामने आता है, कहीं असफलता सहचरी के रूप में दिखाई देती है, इन स्थितियों का सम्यक् विश्लेषण इनसे मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। उसके अभाव में, तात्कालिक आवेश और असुविचारित साहसिक निर्णय व्यक्ति को बहुत पीछे भी ढकेल सकता है।