श्रमण महावीर
(िपछला शेष)
'भैया! अन्तिम निर्णय सही है कि आप मेरे मार्ग में अवरोध न बनें,' कुमार ने बड़ी तत्परता से कहा।
नंदिनवर्द्धन बोले, 'कुमार! यह कथमपि सम्भव नहीं है। मैं जानता हूं कि तुम्हारी अहिंसा तुम्हें घाव पर नमक डालने की अनुमति तो नहीं देगी।'
नंदिवर्द्धन ने इतना कहा कि कुमार विवश हो गए।
'मुझे निष्क्रमण करना है। इसमें मैं परिवर्तन नहीं ला सकता। मैं महान् उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक यात्रा प्रारम्भ कर रहा हूं। इस कार्य में मुझे सहयोग चाहिए। फिर आप मुझे क्यों रोकना चाहते हैं? कुमार ने एक ही सांस में सारी बातें कह डालीं।' नंदिवर्द्धन जानते थे कि कुमार सदा के लिए यहां रुकने वाला नहीं है, इसलिए असम्भव आग्रह करने से कोई लाभ नहीं। उन्होंने कहा, कुमार! मैं तुम्हें रोकना चाहता हूं पर सदा के लिए नहीं।'
'फिर कब तक?'
'मैं चाहता हूं तुम माता-पिता के शोक-समापन तक यहां रहो, फिर अभिनिष्क्रमण कर लेना।'
'शोक कब तक मनाया जाएगा?'
'दो वर्ष तक।'1
'बहुत लम्बी अवधि है।'
'कुछ भी हो, इसे मान्य करना ही होगा।'
सुपार्श्व भी नंदिवर्द्धन के पक्ष का समर्थन करने लगे। कुमार ने देखा, अब कोई चारा नहीं है। इसे मानना पड़ेगा पर मैं अपने ढंग से मानूंगा। कुमार ने कहा, 'एक शर्त पर में आपकी बात मान सकता हूं।' 'वह क्या है,' दोनों एक साथ बोल उठे।
'घर में रहकर मुझे साधक का जीवन जीने की पूर्ण स्वतंत्रता हो तो मैं दो वर्ष तक यहां रह सकता हूं, अन्यथा नहीं।'
उन्होंने कुमार की शर्त मान ली। कुमार ने उनकी बात को अपनी स्वीकृति दे दी। अभिनिष्क्रमण की चर्चा पर एक बार पटाक्षेप हो गया।
िवदेह–साधना
कुमार वर्द्धमान के अंतस् में स्वतंत्रता की लौ प्रदीप्त हो चुकी थी। वह इतनी उद्दाम थी कि ऐश्वर्य की हवा का प्रखर झोंका भी उसे बुझा नहीं पा रहा था। कुमार घर की दीवारों में बन्द रहकर भी मन की दीवारों का अतिक्रमण करने लगे। किसी वस्तु में बद्ध रहकर जीने का अर्थ उनकी दृष्टि में था स्वतंत्रता का हनन। उन्होंने स्वतंत्रता की साधना के तीन आयाम एक साथ खोल दिए–एक था अहिंसा, दूसरा सत्य और तीसरा ब्रह्मचर्य।
अहिंसा की साधना के लिए उन्होंने मैत्री का विकास किया। उनसे सूक्ष्म जीवों की हिंसा भी असम्भव हो गई। वे न तो सजीव अन्न खाते, न सजीव पानी पीते और न रात्रि-भोजन करते।
सत्य की साधना के लिए वे ध्यान और भावना का अभ्यास करने लगे। मैं अकेला हूं-
इस भावना के द्वारा उन्होंने अनासक्ति को साधा और उसके द्वारा आत्मा की उपलब्धि का द्वार खोला।2
ब्रह्मचर्य की साधना के लिए उन्होंने अस्वाद का अभ्यास किया। आहार के सम्बन्ध में उन्होंने विविध प्रयोग किए। फलस्वरूप सरस और नीरस भोजन में उनका समत्व सिद्ध हो गया।3
कुमार ने शरीर के ममत्व से मुक्ति पा ली। अब्रह्मचर्य की आग अपने आप बुझ गई। कुमार की यह जीवनचर्या राजपरिवार को पसन्द नहीं थी। कभी-कभी सुपार्श्व और नंदिवर्द्धन
कुमार की साधक-चर्या का हलका-सा विरोध करते। पर कुमार पहले ही अपनी स्वतंत्रता का वचन ले चुके थे।
काल का चक्र अविराम गति से घूमता है। आकांक्षा की पूर्ति के क्षणों में हमें लगता है, वह जल्दी घूम गया। उसकी पूर्ति की प्रतीक्षा के क्षणों में हमें लगता है, वह कहीं रुक गया। महावीर को दो वर्ष का काल बहुत लम्बा लगा। आखिर लक्ष्यपूर्ति की घड़ी आ गयी। स्वतंत्रता सेनानी के पैर परतंत्रता के निदान की खोज में आगे बढ़ गए।4