धर्म है उत्कृष्ट मंगल
आत्म-स्वरूप की उपलब्धि के लिए आवश्यक है संवर और निर्जरा की साधना। कर्म के प्रवेश का निरोध संवर और पूर्वसंचित कर्म का परिशोधन निर्जरा है। उसके बारह भेद हैं। उनमें प्रथम छह बाह्य तप और शेष आभ्यन्तर तप कहलाते हैं। बाह्य तप मुख्यतया कायसिद्धि और आभ्यन्तर तप मुख्यतया भावविशुद्धि पर आधारित प्रतीत होता है। बाह्य तप का उद्देश्य है आभ्यन्तर तप को पुष्ट करना। बाह्य तप के प्रथम चार भेद अनाहार से संबंधित हैं। उनमें पहला है अनशन। अशन का अर्थ है- भोजन, उसका परित्याग है- अनशन। उसके दो भेद हैं-
1. इत्वरिक
2. यावत्कथिक ।
इत्वरिक अनशन
उपवास से लेकर छह मास तक की तपस्या इत्वरिक अनशन है। भगवान महावीर ने अपने साधना-काल में इस तप का बहुत अधिक प्रयोग किया था। करीब साढ़े बारह वर्षों में एक वर्ष भी उन्होंने आहार नहीं किया। उनके जीवन में बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार के तप का योग था। निर्जल अनाहार तप की प्रकृष्टता और ध्यान के विशिष्ट प्रयोग उनकी साधना के मौलिक अंग थे। जैन समाज में आज भी तपस्या का अच्छा क्रम चल रहा है। अनाहार के साथ ध्यान, जप, स्वाध्याय आदि का योग होने पर तपोबल प्रबल बन सकता है।
यावत्कथिक अनशन
जैन आगमों में न केवल जीने की कला बतलाई गई है, अपितु 'कैसे मरना' भी सिखाया गया है। सुना है कि विनोबाजी ने एक बार कहा था- मैं जैन धर्म में निर्दिष्ट मृत्युविधि से मरना पसन्द करूंगा और उन्होंने अपनी इच्छा को अन्त में पूर्ण भी किया। मोह-ममता से उपरत होकर समाधिपूर्ण मरण का वरण करना मरने की कला है। आत्म-कल्याण की भावना से यावज्जीवन के लिए आहार का परित्याग करना यावत्कथिक अनशन है। उसकी तैयारी स्वरूप पूर्ण अभ्यास के रूप में क्रमिक तप करना संलेखना कहलाता है। आहार का अल्पीकरण द्रव्य संलेखना और कषाय का अल्पीकरण भाव संलेखना है। ठाणं सूत्र में श्रमण और श्रमणोपासक के लिए तीन-तीन मनोरथ निर्दिष्ट हैं। उनमें तीसरा दोनों के लिए समान है। वह है-
'कया णं अहं अपच्छिम मारणंतिय सलेहणा-झूसणा-झूसिते भत्तपाण
पडिया-इक्खित्ते पाओवगते कालं अणवकखमाणे विहरिस्सामि?'
'कब मैं अपश्चिम मारणांतिक संलेखना की आराधना से युक्त होकर भक्तपान का परित्याग कर, प्रायोपगमन अनशन स्वीकार कर मृत्यु को आकांक्षा नहीं करता हुआ विहरण करूंगा?'
साधनामय जीवन की परिसम्पन्नता अनशनपूर्वक हो, यह प्रत्येक साधक की मनोकामना रहनी चाहिए, यह पूर्वोक्त सूक्त का तात्पर्य है। इस प्रकार की मंगल भावना भी महान् कर्म-निर्जरा का साधन बनती है और साधक को जागरूक वनाए रखती है। यावत्कथिक अनशन के तीन प्रकार
यावत्कथिक अनशन के तीन प्रकार हैं-
1. भक्त-प्रत्याख्यान
2. इंगिणि (इंगित) मरण
3. प्रायोपगमन।
1. भक्त-प्रत्याख्यान अनशन करने वाला आहार का परिहार करता है। वह अपनी शारीरिक परिचर्या में दूसरों का सहयोग भी स्वीकार करता है।
2. इंगिणी मरण अनशन। यह भक्त प्रत्याख्यान से उच्चतर है। इसे अतिशय ज्ञानी (कम से कम नव पूर्वधर) और संयमी भिक्षु ही स्वीकार करते हैं। आगमों के एक वर्गीकरण का नाम पूर्व है। वे संख्या में चौदह थे, उनमें विशाल श्रुतज्ञान संकलित था। वर्तमान में वे उपलब्ध नहीं हैं। इस अनशन में भिक्षु सीमित स्थान में स्वयं उठना, बैठना या चंक्रमण कर सकता है। किन्तु उठने, बैठने और चंक्रमण करने में दूसरे का सहारा मनसा, वाचा, कर्मणा न लेना, न लिवाना और न लेने वाले का अनुमोदन करना उसका नियम होता है।