सारभूत ज्ञान को ग्रहण करने हो प्रयास : आचार्य श्री महाश्रमण
चातुर्मासिक पक्खी का पावन दिन, रंगों का त्योहार होली। अध्यात्म के रंगों की छटा बिखेरने वाले आचार्यश्री महाश्रमणजी ने मंगल पाथेय प्रदान कराते हुए फरमाया कि अध्यात्म और व्यवहार के क्षेत्र में ज्ञान का बहुत महत्व है। सम्यक् ज्ञान प्राप्त होना एक उपलब्धि होती है। कोई भी कार्य करना हो, उस कार्य के सन्दर्भ में सम्यक् ज्ञान होता है, उसके अनुसार कार्य किया जाता है तो उस कार्य का सम्यक् सम्पादन हो सकता है। आचरण से पूर्व उसके सन्दर्भ में ज्ञान होना अपेक्षित होता है। अध्यात्म के क्षेत्र में बढ़ने वालों को यदि अहिंसा, मोक्ष, धर्म, तत्त्व आदि का सम्यक् ज्ञान होता है फिर सम्यक् क्रियान्विति होती है तो लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है।
ज्ञान को प्रथम स्थान दिया गया क्योंकि क्रिया से पहले ज्ञान चाहिए। पढमं नाणं तओ दया- पहले ज्ञान फिर दया अर्थात् आचरण। ज्ञान पूर्वक क्रिया सम्यक् क्रिया हो सकती है। ज्ञान और आचार दोनों का समन्वय होना आवश्यक है। ज्ञान अलग है, आचार अलग है। दुनिया में अध्यात्म भी है और विज्ञान भी है पर दोनों में समन्वय होना चाहिए। कहीं अध्यात्म विज्ञान को राह दिखाने वाला हो सकता है तो कहीं अध्यात्म की बातों को सिद्ध करने में विज्ञान सहायक बन सकता है। इसी प्रकार ज्ञान और आचार दोनों का जीवन में होना काम्य है।
स्वाध्याय करने से ज्ञान बढ़ता है। पर इसमें भी कुछ परिस्थितियां आ सकती है। पहली बात बताई गई है कि शब्द शास्त्र या ज्ञान अपार है। दूसरी बात यह कि व्यक्ति का समय और जीवन काल सीमित है। वर्तमान में तो 100 वर्ष भी पार करने वाले सीमित होते हैं। हमारे धर्मसंघ में तो संभवतः एक रिकॉर्ड है कि साध्वी बिदामांजी 100 वर्ष पार करने वाले पहले चारित्रात्मा विद्यमान हैं।
तीसरी बात है कि जीवन काल तो सीमित है पर अनेक विघ्न बाधाएं व अन्य कार्य आ जाते हैं जिनसे ज्ञान प्राप्ति में अवरोध आ सकता है। इन तीन स्थितियों के होने से सारे ग्रंथों को तो पढ़ना मुश्किल है, इसलिए सुझाव दिया गया कि जो सारभूत ज्ञान है उसको ग्रहण कर लाे। दशवैकालिक आगम में साधु के लिए सारभूत बातें आई हैं। आचार्य शय्यंभव ने मुनि मनक के लिए सारभूत ज्ञान के रूप में दशवैकालिक आगम निर्यूढ़ किया था। ज्ञान तो अथाह है पर जो व्यक्ति जिस कार्य से जुड़ा है, वह उस विषय में निष्णात हो। अपने कार्य क्षेत्र के लिए कौनसा ज्ञान उपयोगी है, सारभूत है उसका अध्ययन होना चाहिए। सबके लिए सारभूत अलग-अलग हो सकता है।
कहा गया है-
जीव अजीव जाण्या नहीं, नहीं जाणी छः काय।
सूनै घर रा पावणा, ज्यूं आया त्यूं जाय।
जीव अजीव जाण्या सही, सही जाणी छः काय।
बसते घर रा पावणा, मीठा भोजन खाय।।
श्रावक को नव तत्त्वों का ज्ञान होना चाहिए। जो श्रावक जीव-अजीव को नहीं जानता है वह सूने घर के पाहुने के समान है। बताया गया है कि जो जीव-अजीव को जानता है, वह संयम को जानता है। हम धर्म के संदर्भ में यथार्थ को जानने का प्रयास करें। ग्रन्थों का ज्ञान करने से सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। कोई ज्ञान देने वाला मिल जाये, ज्ञान ग्रहण करने वाला मिल जाये और साथ में पुस्तक आदि ज्ञान की सामग्री हो, प्रतिभा हो तो प्रयास करने से ज्ञान का विकास हो सकता है।
अंधा व्यक्ति दर्पण में चेहरा नहीं देख सकता। चेहरा देखने के लिए आंखें और दर्पण दोनों चाहिए। इनके अतिरिक्त दर्पण पर आवरण भी न हो और देखने का प्रयास भी हो, चारों का योग होने पर दर्पण में देखा जा सकता है। खुद की प्रज्ञा नहीं हैं, तो शास्त्र पास में होने मात्र से ही भला होना संदिग्ध है। हम सम्यक् ज्ञान ग्रहण करने का प्रयास करें। पूज्यप्रवर ने होली के अवसर पर चैतन्य केंद्रों पर रंगों के साथ नमस्कार महामंत्र का जप करवाया। आचार्य प्रवर ने आगे फरमाया- साध्वी मंगलप्रज्ञाजी का सिंघाड़ा चार चातुर्मास के अंतराल के बाद गुरुकुलवास में पहुंचा है। सभी साध्वियां खूब अच्छा काम करती रहे। साध्वी मंगलप्रज्ञाजी पहले समण श्रेणी में थी, वहां पर भी उच्च पद पर सेवा दी थी। समणी नियोजिका एवं जैन विश्व भारती इंस्टीट्यूट में वाइस चांसलर के रूप में सेवा दी थी। सभी साध्वियां ज्ञान दर्शन चरित्र तप के क्षेत्र में विकास करती रहें।
साध्वी मंगलप्रज्ञाजी ने अपने मन के भाव पूज्यवर के श्रीचरणों में अर्पित किए। सहवर्ती साध्वीवृंद ने गीत के संगान से अपनी भावना अभिव्यक्त की एवं भेंट स्वरूप विभिन्न रूपों में ज्ञानात्मक सामग्री आचार्य प्रवर को समर्पित की। तेरापंथ समाज पिंपरी चिंचवड़ की ओर से सुनील नाहर ने अपनी भावना अभिव्यक्त करते हुए आध्यात्मिक भेंट श्री चरणों में अर्पित की। अणुव्रत समिति पिंपरी चिंचवड़ की ओर से विकास छाजेड़ ने अपने विचार व्यक्त किए।