सीमित-परिमित और सारभूत हो हमारी भाषा : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

सीमित-परिमित और सारभूत हो हमारी भाषा : आचार्यश्री महाश्रमण

आरोग्य, बोधि और समाधि का पथ प्रशस्त करने वाले अध्यात्म जगत के महासूर्य आचार्यश्री महाश्रमणजी ने मंगल देशना प्रदान कराते हुए फरमाया कि हमारे जीवन में वाणी एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा हमारे विचारों का आदान-प्रदान होता है। हमारे विचार वाणी-रूपी रथ पर आरुढ़ होकर बाहर जाते हैं। विचारों को वहन करने वाला तत्त्व भाषा होती है। भाषा पशुओं के पास भी होती है परन्तु मनुष्य के पास जो भाषा है, वह बहुत व्यापक है, विकसित है।
दुनिया में अनेकों भाषाएं चलती हैं। मेरा विचार है कि पूरी दुनिया में एक ही भाषा चलती, शास्त्र उसी एक ही भाषा में होते तो कितनी सुविधा हो जाती। आज के समय में अनेक भाषाएं सीखनी पड़ती हैं। भाषा मूल चीज नहीं है, मूल तो विषय है। विषय हमारा साध्य है, भाषा साधन है। अनेक भाषाओं को सीखने में कितना समय लगता होगा। एक ही भाषा हो तो अनुवाद की अपेक्षा ही नहीं रहती। भाषा की अपनी उपयोगिता होती है। जो भाषा हमारे ज्यादा काम में आये वह भाषा उपयोगी है। भाषा की शक्ति मिलना भी अपने आप में विशेष बात होती है। ऐसे भी कई व्यक्ति होते हैं, जो स्पष्ट सुन या बोल नहीं पाते हैं।
जिनके पास भाषा की शक्ति है वे भाषा का प्रयोग कब, कैसे और किस रूप में करे? शास्त्रकार ने कहा- बिना पूछे मत बोलो। यदि हम बिना पूछे बोलें और उपयुक्त बात नहीं बोलें तो हमारा बोलना व्यर्थ सिद्ध हो सकता है। जहां जरूरी लगे वहां बीच में भी बोला जा सकता है। मौन करना अच्छा है तो बोलना भी अच्छा। बड़ी बात है बोलने और न बोलने में विवेक रखना। वाणी के दो दोष हैं- एक कि बात को लंबा कर देना, दूसरा कि लंबी बात को भी निस्सार कर देना। वाणी के दो गुण हैं- सीमित-परिमित बोलना और सारभूत बोलना। ये दो बातें आदमी को वाक्-पटु बना सकती है। झूठ न बोलें, बोलें तो सच बोले। हर सच बात बोलना भी जरूरी नहीं है। गृहस्थ भी मृषावर्जन का प्रयास करें। किसी पर झूठा आरोप न लगायें, झूठी गवाही न देवें।
क्रोध को भी असफल करें। मन में गुस्सा आ भी जाए पर वाणी पर गुस्सा न आये, गुस्सा आए तब मौन रखने का प्रयास करें। क्रोध में शरीर से भी कोई प्रतिक्रिया ना करें, जहां बैठे हों वह स्थान छोड़ दें। मन का पाप अलग है पर कम से कम वाणी या शरीर से पाप न हो। प्रिय और अप्रिय स्थितियांे में हम धैर्य-शांति रखें। समत्व भाव दोनों परिस्थिति में रखें। भाषा काम बना सकती है, तो बात बिगाड़ भी सकती है। परिवार में बात बिगड़ती दिखे तो उसे परोटने का प्रयास करें। ऐसा व्यवहार करें कि सामने वाले के मन की पीड़ा दूर हो जाये। प्रिय बाेलने से लोग संतुष्ट होते हैं तो फालतू कड़वे वचन क्यों बोलें ? अच्छी, शिष्ट, शालीन भाषा बोलें। इष्ट और शिष्ट भाषा विशिष्ट बन सकती है। हमारा मानव जीवन कितना महत्वपूर्ण है। जीवन का क्षण-क्षण बीत रहा है। इसलिए हम धर्म के प्रति सजग रहें। हम सभी में अध्यात्म की चेतना जागरण होता रहे।
पूज्यप्रवर के मंगल प्रवचन से पूर्व साध्वीवर्या संबुद्धयशा जी ने अपने उद्बोधन में कहा कि जन्म और मृत्यु के बीच का समय है जीवन। जीवन कैसे जीना ये हमारे हाथ में होता है। जीवन दो प्रकार से जीया जा सकता है: स्वतंत्र रूप में और परतंत्र रूप में। स्वतंत्रता का जीवन प्रतिक्रिया विरति का जीवन होता है। जहां हर बात पर प्रतिक्रिया होती है, वह परतंत्रता का जीवन होता है। जीवन में जहां क्रिया होती है, वहां प्रतिक्रिया भी होती है। हम नकारात्मक प्रतिक्रियाओं से बचने का प्रयास करें। स्वतंत्र जीवन जीना है तो हम दूसरे के हाथों की कठपुतली न बनें।
प्रवचन के उपरांत आचार्य प्रवर ने मुमुक्ष ऋजुल को भाद्रव शुक्ला नवमी तदनुसार 12 सितंबर 2024 को सूरत में साध्वी दीक्षा देने की घोषणा की। साध्वी मंगलप्रज्ञा जी ने आचार्यप्रवर के प्रातिभ पाटव के प्रति अपने विचार व्यक्त किये। परम पावन की अभिवंदना में तेरापंथ युवक परिषद् पूना ने गीत की प्रस्तुति दी एवं परिषद् के सदस्यों ने पूज्य प्रवर से संकल्प स्वीकार किए। ज्ञानशाला की सुन्दर प्रस्तुति हुई। ज्ञानार्थियों को भी पूज्यवर ने संकल्प स्वीकार करवाए। कन्या मंडल द्वारा चौबीसी व गुणस्थान की ढाल प्रस्तुत की गयी। तनसुखजी बैद ने अपनी कृति पूज्यवर के श्री चरणों में लोकार्पित की। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेश कुमारजी ने किया।