धर्म है उत्कृष्ट मंगल

स्वाध्याय

धर्म है उत्कृष्ट मंगल

3. प्रायोपगमन अनशन। यह सर्वश्रेष्ठ अनशन है, उच्चतम है। इस अनशन में अवस्थित साधक समूचे शरीर के अकड़ जाने पर भी अपने स्थान से चलित नहीं होता। इसमें भक्त-प्रत्याख्यान और इंगिणी मरण अनशन का आचार तो है ही, सर्वथा निश्चल रहना इसकी विशेष साधना है। इस अनशन में अवस्थित साधक शरीर का सब प्रकार से विसर्जन कर देता है। परीषह उत्पन्न होने पर उसके लिए भावनीय होता है- 'ण रें देहे परीसहा।' यह शरीर ही मेरा नहीं है तब मुझे परीषह कहां होगा?
अनशन और आत्महत्या
यावत््कथिक अनशन और आत्महत्या में इतनी समानता है कि गाहे- अनचाहे, विलम्बित या अविलम्बित दोनों की निष्पत्ति है शरीर का मन्त। अन्तर यह है कि अनशन शान्त भाव से, आत्म कल्याण के द्वेश्य से, आर्तध्यान से मुक्त अवस्था में प्रसन्नतापूर्वक किया जाने वाला आहार का परिहार है। इसका अनुष्ठाता साधक जीवन-मरण की आशा से विप्रमुक्त होकर आत्मलीनता का अभ्यास करता है। उससे आत्मशुद्धि होती है। आत्महत्या साधारणतया निराशा, कुण्ठा, तनाव और आवेशवश की जाती है। यदि निराशा, आवेश आदि कारणों से प्रेरित होकर अनशन स्वीकार किया जाए तो मेरी दृष्टि से वह आत्महत्या का भाई ही कहलाएगा।
खाद्यसंयम का प्रयोग
'अनशन' निश्चित ही स्पृहणीय, करणीय और अनुमोदनीय तप है। उपवास, बेला (दो दिन का उपवास), तेला (तीन दिन का उपवास) आदि तपस्याएं उसके अंतर्गत हैं। आवण-भाद्रव मास में जैन लोग विशेष रूप से तपस्या का प्रयोग करते हैं। यथाशक्ति, यथास्थिति वह होना भी चाहिए। कुछ लोग शारीरिक दौर्बल्य अथवा अन्य करणीय कार्यों की व्यस्तता के कारण प्रायः तपस्या नहीं कर सकते, उन्हें निरुत्साह होने को जरूरत नहीं। उन्हें 'ऊनोदरी' पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए।
निर्जरा के बारह भेदों में दूसरा भेद है ऊनोदरी। उसे ऊनोदरिका, अवमौदर्यं अथवा अवमोदरिका भी कहा जाता है। 'ऊन' का अर्थ न्यून, कम। उदर का अर्थ है पेट। उदर को ऊन रखना, खाने में कमी करना ऊनोदरी तप है। ऊनोदरी का यही अर्थ अधिक प्रचलित एवं प्रसिद्ध है। आगमों को पढ़ने से ज्ञात होता है कि ऊनोदरी का अर्थ व्यापक है। वहां ऊनोदरी के दो प्रकार बतलाए गए हैं-
1. द्रव्य अवमोदरिका
2. भाव अवमोदरिका।
अवमोदरिका का तात्पर्य है अल्पीकरण अथवा संयम। द्रव्य अवमोदरिका का अर्थ है उपभोग-परिभोग में प्रयुक्त होने वाले द्रव्यों-भौतिक पदार्थों का संयम करना। भाव अवमोदरिका का सम्बन्ध हमारे अंतर्जगत् से है, भावों (इमोशन्स्) से है, निषेधात्मक भावों (नेगेटिव एिटट्यूडस्) के नियन्त्रण से है।
द्रव्य अवमोदरिका के भी दो प्रकार हैं-
1. उपकरण द्रव्य अवमोदरिका
2. भक्तपान द्रव्य अवमोदरिका
वस्त्र, पात्र आदि उपकरणों का संयम करना उपकरण द्रव्य अवमोदरिका एवं खान-पान में संयम करना भक्तपान द्रव्य अवमोदरिका है।
यह अवमोदरिका जहां जैन तपोयोग का एक अंग है वहीं अनेक व्यावहारिक समस्याओं का समाधान भी है। कुछ लोग अनावश्यक खाते हैं, मौज उड़ाते हैं और बीमारियों को अपने घर (शरीर) में लाकर रहने के लिए निमन्त्रण देते हैं। कुछ लोग ऐसे हैं जिन्हें क्षुधाशांति के लिए पर्याप्त खाद्य सामग्री भी नहीं मिलती है। वे कष्ट का जीवन जीते हैं। अति भाव और अभाव की इस विषम स्थिति में संतुलन हो जाए तो दोनों ओर की समस्या का समाधान हो सकता है। इसी प्रकार वस्त्र, मकान, यान-वाहन आदि की बहुलता और अभाव की विषम स्थितियां हैं। उनके समीकरण में ऊनोदरी का सिद्धांत प्रकाश स्तम्भ के रूप में हमारे सामने है। उसको युक्ति-युक्त समझना, समझाना अपेक्षित है। लड़का भरपेट भोजन कर उठा ही था कि मित्र के घर से प्रीतिभोज में भाग लेने के लिए निमन्त्रण मिला। वह अपने वृद्ध पिता के पास जाकर बोला
ऊर्ध्व गच्छन्ति नोद्‌गाराः, नाधो गच्छन्ति वायवः।
निमन्त्रणं समायातं, तात! ब्रूहि करोमि किम्?।।