संबोधि
तैजस शरीर तापमय शरीर है। यह हमारी उष्मा, सक्रियता और शक्ति का संचालक है। यह न हो तो उष्मा पैदा नहीं हो सकती, पाचन नहीं हो सकता, रक्त का संचार नहीं हो सकता। यह तैजस शरीर ही हमारी स्थूल शरीर की सारी क्रियाओं (संरचनाओं) का संचालन करता है। स्थूल शरीर में शक्ति का सबसे बड़ा भंडार है–तैजस शरीर। जिसका तैजस शरीर मंद है–अग्नि मंद है, उसकी सारी क्रियाएं मंद हो जाती हैं। अग्नि तीव्र है तो सारी क्रियाएं तीव्र हो जाती हैं।
तैजस शरीर के दो कार्य हैं -
१. शरीर–तंत्र का संचालन।
२. अनुग्रह और निग्रह का सामर्थ्य ।
मेघः प्राह
१४. भगवन्! इन्द्रियग्रामं, चंचलं विद्यते भृशम्।
संयमः कथमाधेयः, तात्पर्यं तस्य साधय॥
मेघ बोला-भगवन्! इन्द्रिय-समूह बहुत चंचल है। उसे संयत कैसे किया जाए? आप उसका तात्पर्य मुझे समझाएं।
मनुष्य को प्रकृति ने दिव्य देह, दिव्य इन्द्रियां, दिव्य मन, दिव्य बुद्धि और दिव्य चेतना प्रदान की है। आश्चर्य होता है फिर वह दुःखी क्यों है? लगता है वह अपनी दिव्य शक्ति का सम्यक् उपयोग नहीं कर रहा है। इसका कारण वह स्वयं तो है ही किन्तु इसके साथ–साथ उसके पूर्वोपार्जित संस्कार कर्म भी है। वह नहीं चाहते हुए भी संस्कारों के कारण गलत दिशा में धकेल दिया जाता है। न उसका मन पर नियंत्रण है और न इन्द्रियों पर। मन और इन्द्रियों को उत्तेजित करने वाले बाह्य साधन भी उसे वैसे ही उपलब्ध हो जाते हैं, जिससे वह सहज ही गलत दिशा में जाने को विवश हो जाता है।
इसका मुख्य कारण है इन्द्रियां, मन, बुद्धि व शरीर आदि अपने स्वामी के सम्मुख नहीं है। अपने मालिक के साथ उनका जो संबंध या बोध होना चाहिए वह नहीं है। धर्म-अध्यात्म की प्रक्रिया उसे अपने स्वामी की दिशा में मोड़ने के लिए है। जिस दिन स्वामित्व का बोध होता है चंचलता की समस्या समाहित हो जाती है। जो–जो प्रयोग निर्दिष्ट हैं उनका लक्ष्य भी आवरणों–मलों को क्षीण कर सत्य तत्त्व से परिचित कराना है। मेघ ने जो प्रश्न खड़ा किया है उसका समाधान विविध प्रयोगों में निहित है ।
भगवान् प्राह
१५. बाध्यमानो ग्राम्यधर्मैः, रूक्षं भुञ्जीत भोजनम्।
प्रकुर्यादवमौदयं, ऊर्ध्वस्थानं स्थितो भवेत्॥
भगवान् ने कहा- मुनि ग्राम्य-धर्म-काम-विकार से पीड़ित होने पर
रूक्ष भोजन करे, अवमौदर्य मात्रा में कम खाए और ऊर्ध्वस्थान-
कायोत्सर्ग करे ।
१६. नैकत्र निवसेन्नित्यं, ग्रामं ग्राममनुव्रजेत्।
व्युच्छेदं भोजनस्याऽपि, कुर्यात् रागनिवृत्तये॥
मुनि सदा एक स्थान में निवास न करे, गांव–गांव में विहार करे और राग की निवृत्ति के लिए भोजन को भी छोड़े।
काम–वासना मनुष्य की मौलिकवृत्ति है, ऐसा मनोवैज्ञानिकों का कहना है। 'काम' ऊर्जा है। एक शक्ति है, किंतु उसके प्रयोग भिन्न–भिन्न हो सकते हैं। मनोवैज्ञानिक इसे विराट् शक्ति कहते हैं और वे कहते हैं कि इससे पार नहीं हुआ जा सकता। इसमें काफी सच्चाई है। बहुत कम व्यक्ति ही इस विराट् ऊर्जा को बचा सकते हैं। इसलिए साधना मार्ग को दुरूह, दुर्धर्ष कहा गया।