शरीर रूपी नौका में हो निश्छिद्र संयम और तप की साधना : आचार्यश्री महाश्रमण
हमारे जीवन में शरीर और जीव ये दो तत्व हैं। शास्त्रकार ने कहा कि शरीर एक प्रकार की नौका है और जीव नाविक है। यह संसार एक अर्णव है, सागर है, इस सागर को महर्षि लोग तर जाते हैं। उपरोक्त विचार युगप्रधान आचार्य श्री महाश्रमण जी ने वाघोली स्थित भारतीय जैन संगठना शैक्षणिक पुनर्वसन प्रकल्प में मुख्य प्रवचन में उपस्थित जनमेदिनी को उद्बोधित करते हुए रखे। आचार्य प्रवर ने आगे कहा कि संसार सागर को तरने के लिए इस शरीर रूपी नौका का उपयोग किया जाये तो आदमी संसार समुद्र पार कर सकता हैं। नौका निश्छिद्र होनी चाहिए, सछिद्र नौका डुबोने वाली हो सकती है। यह मानव जीवन है इसमें पापों के छेद, आश्रवों के छेद न रहे और निश्छिद्र संयम-तप की साधना चले। इस शरीर के द्वारा संयम और तप की साधना होती है, धर्म की आराधना होती है तो प्राणी संसार समुद्र को पार कर सकता है।
आदमी जीवन में कार्य करना चाहता हैं तो शरीर की सक्षमता चाहिए। शरीर की सक्षमता में तीन बाधाएं आती हैं बुढापा, बीमारी और इंद्रिय शक्ति क्षीणता। शरीर की स्वस्थता में जब तक ये बाधाएं न आये तब तक धार्मिक-आध्यात्मिक कार्य कर लेने चाहिए। मानव जीवन का उपयोग आदमी अच्छे रूप में करें और यह सोचे कि इस जीवन में मैं क्या कर सकता हूं?
सबसे महत्वपूर्ण बात है अपनी आत्मा के कल्याण के लिए त्याग, संयम, तपस्या करने का प्रयास करें। त्याग- संयम रखें, स्वाध्याय करें, ईमानदारी रखें, अहिंसा की चेतना जागृत रहे। श्रावक के बारह व्रतों के बारे में बताते हुए पूज्य प्रवर ने कहा कि इच्छाओं की सीमा रखें व भोग-उपभोग का संयम रखें। हमारे जीवन में सद्गुण रहें। ये नौका जब निश्छिद्र होगी तो आगे बढ़ेगी। तप और संयम इस नौका के साथ जुडें हो तो हम इस नौका के सहारे भव सागर पार कर सकेंगे।
हम जैन धर्म से जुड़े हुए भगवान महावीर के शासन से जुड़े हुए हैं। हम अच्छी साधना-आराधना करें। अध्यात्म की संपदा के सामने भौतिक संपदा तो बहुत छोटी है। भौतिकता को भी अध्यात्म के साथ जोड़ दें तो भौतिकता धन्य हो सकती है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप यह चार मोक्ष मार्ग है, ये बहुत अमूल्य हैं। मानव जीवन रूपी नौका में आध्यात्मिक संपदा का विकास होता रहे। पूज्यवर के स्वागत में स्थानीय महिला मंडल ने गीत का संगान किया। शांतिलाल मुथा, गीता श्यामसुखा ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।