ज्ञान में करें तर्क और आज्ञा में रहें सतर्क : आचार्य श्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

ज्ञान में करें तर्क और आज्ञा में रहें सतर्क : आचार्य श्री महाश्रमण

सीमंधर समवसरण में आध्यात्मिक सम्पदा के धारक आचार्य श्री महाश्रमण जी ने आगम वाणी की अमृतधारा बहाते हुए फरमाया कि हमारे शरीर में पांच इंद्रियां हैं। ये पांच इंद्रियां अपने निर्धारित विषयों का ग्रहण करती हैं। इंद्रियों से संबंधित तीन बातें होती हैं- इन्द्रिय, इन्द्रिय विषय और इन्द्रिय का व्यापार। श्रोत्र का विषय है- शब्द और उसका व्यापार है- सुनना। चक्षु का विषय है- रूप और उसका व्यापार है देखना। घ्राणेंद्रिय का विषय है- गन्ध और उसका व्यापार है- सूंघना। रसनेंद्रिय का विषय है- रस और उसका व्यापार है- आस्वाद का अनुभव करना। स्पर्शनेंद्रिय का विषय है- स्पर्श और उसका व्यापार है- छूना। 
ये पांच इंद्रियां ज्ञानेंद्रियां हैं तो भोगेंद्रियां भी हो सकती हैं। इन्द्रियों से ज्ञान ग्रहण कर सकते हैं, तो राग-द्वेष युक्त होकर आसक्ति कर आदमी विषयों का भोग भी कर सकता है। श्रोत्र और चक्षु ये दो कामी इंद्रियां हैं शेष तीन भोगी इंद्रियां हैं। श्रोत्र प्राप्यकारी है, शब्द को प्राप्त कर उसका अवबोध करता है। पर रूप आंख के अन्दर नहीं जा सकता उसे हम दूर से देखते हैं। इसलिए वह अप्राप्यकारी है। घ्राण, रसन और स्पर्श भी प्राप्यकारी हैं। ज्ञान प्राप्ति में ज्यादा सक्षम-श्रोत्र और चक्षु प्रतीत होती हैं। इन दो से जितना ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है, उतना संभवत: घ्राण, रसन और स्पर्शन से नहीं किया जा सकता।
कान से सुनकर आदमी कितना ज्ञान कर लेता है। रोहिणेय चोर ने भी भगवान महावीर की वाणी को सुनकर ज्ञान कर लिया था। चौदह पूर्वों का ज्ञान भी सुनकर ग्रहण किया जाता था। इसी प्रकार चक्षु भी हमारे ज्ञान का बड़ा माध्यम है। आंखों से पढ़‌कर ग्रंथों का ज्ञान ग्रहण किया जा सकता है। कान से सुनकर कोई बात आंखों से देख ली जाती है, तो वह प्रमाणित हो जाती है। श्रोत्र और चक्षु के द्वारा हमें ज्ञान प्राप्त करने, अध्ययन-अध्यापन करने में सक्षम सहयोग मिलता है। शब्द का अर्थ हमें ज्ञात हो तो हमारा ज्ञान बढ़ सकता है। भाषा के क्षेत्र में बताया गया है कि जिसे व्याकरण का ज्ञान नहीं है, वह अन्धे के समान है। जिसके पास शब्दकोष नहीं है, वह बहरा है, साहित्य का विकास नहीं है वह पंगु है और तर्क शक्ति नहीं है वह मूक है। विद्यार्थी में तार्किक बुद्धि होना शुभ का, उसके विकास का संकेत है। ज्ञान में तर्क करें और आज्ञा में सतर्क रहें।
इंद्रियों का एक पक्ष है ज्ञान का विकास, दूसरा है साधना। इंद्रिय विषयों के ग्रहण में समता भाव रखना साधना है। साधना का तात्पर्य यह है कि जो शब्द हमने सुना, उसका अर्थ भी आ गया, उसमें समता-शांति रखें। यथार्थ को समझें, अयथार्थ बातों से तनाव न‌ करें। साधना के क्षेत्र में रूप से भी ज्यादा महत्त्व शरीर की सक्षमता का है। बाह्य आभूषणों से भी ज्यादा महत्त्व सद्गुण रूपी आभूषणों का है। सुन्दरता तो शुभ नाम कर्म का उदय है पर चारित्र तो क्षयोपशम भाव है। हम इंद्रियों के विषय के प्रति राग-द्वेष से बचने का प्रयास करें। इन्द्रियों का सदुपयोग करें। हम आत्म दर्शन करने का प्रयास करें। सम्यकत्व और चारित्र को ज्यादा से ज्यादा निर्मल रखने का प्रयास करें तो कल्याण का मार्ग प्रशस्त हो सकता है।
मुख्य प्रवचन से पूर्व साध्वीवर्या संबुद्धयशा जी ने अपने उद्बोधन में कहा कि सौन्दर्य दो प्रकार के होता है-बाह्य और आंतरिक। बाह्य सौंदर्य का महत्त्व कुछ अंशों में हो सकता है परंतु आंतरिक सौन्दर्य का महत्त्व अधिक है। आंतरिक सौंदर्य अच्छा हो तो हमारा जीवन भी अच्छा बन सकता है। आंतरिक सौंदर्य को निखारने, स्वभाव परिवर्तन करने के संबंध में दो धाराएं हैं। कुछ का मानना है कि स्वभाव में परिवर्तन संभव नहीं है, कुछ मानते हैं की परिवर्तन किया जा सकता है। अध्यात्म वेत्ताओं के चिंतन के अनुसार व्यक्ति के भीतर तीव्र‌ इच्छा हो तो सज्जन व्यक्तियों के संयोग से स्वभाव का रूपान्तरण हो सकता है। आचार्य प्रवर की प्रेरणा से भी अनेक व्यक्तियों का रूपांतरण होता है। बदलने के भी दो रूप होते हैं- गलतियों को छिपाकर या बुराइयों को मिटाकर। व्यक्तित्व को सुंदर बनाने के लिए हमें हमारी बुराइयों को मिटाकर दूर करना है।
पूज्य प्रवर की अभिवंदना में तरुण मोदी ने गीत का संगान किया। तेरापंथ समाज से संयोजक महेंद्र मरलेचा, मूर्तिपूजक संघ से राजेंद्र जी बांठिया, स्थानकवासी समाज से प्रवीण भाई, फतेहचंद रांका, स्थानीय सभाध्यक्ष महावीर कटारिया, स्थानीय सांसद मेघाताई कुलकर्णी, आमदार माधुरीताई विशाल ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। पूज्य प्रवर ने फरमाया कि सब प्राणीयों के प्रति मैत्री भाव रहे, गुणी जनों के प्रति प्रमोद भावना रहे, जो दुःखी जीव हैं, उनके प्रति मेरी करुणा की भावना रहे, विपरीत परिस्थिति के प्रति भी मेरे मन में मध्यस्थ भाव बना रहे। ये चार भावनाएं हमारे जीवन को विभूषित करने वाली हैं। वर्षीतप शुरु करने का दिन कल से शुरू हो रहा है जो भगवान ऋषभ से जुड़ा हुआ है।
वर्तमान शासन हमारा भगवान महावीर से जुड़ा हुआ है। जैन समाज में परस्पर साधार्मिक भावना रहे। जैन विद्या का भी प्रचार-प्रसार होता रहे। पुणे क्राइम ब्रांच प्रमुख अनिल पुण्डरिक एवं अभय छाजेड़ ने डिजिटल डिटॉक्स के बारे में अपने विचार अभिव्यक्त किए। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमार ने किया।