सम्यक् आचार में सहायक है ज्ञान : आचार्यश्री महाश्रमण
पुणे प्रवास के पंचम दिवस अध्यात्म के सुमेरू आचार्यश्री महाश्रमणजी ने जिनवाणी की वर्षा कराते हुए फरमाया कि ज्ञान का हमारे जीवन में बहुत महत्व है। ज्ञान विकास का एक बड़ा साधन है- स्वाध्याय। जैन साधना पद्धति में तपस्या के बारह प्रकारों में दसवां प्रकार स्वाध्याय है। मुनि की दिनचर्या में आठ प्रहर में चार प्रहर स्वाध्याय के लिए, दो प्रहर ध्यान के लिए और दो प्रहर शारीरिक संरक्षण के लिए बताए गए हैं। शास्त्रकार ने स्वाध्याय को ज्यादा महत्त्व दिया है। साधु का जीवन तो साधना के लिए अर्पित होता ही है परंतु कई बार वैयावृत्य के लिए स्वाध्याय को भी गौण करना पड़ सकता है। कई चारित्रात्माओं के पास प्रतिभा का अच्छा योग है, वे ज्ञान की दिशा में अच्छा विकास कर सकते हैं। कई सेवा में निपुण हैं, उनको सेवा का ज्यादा अवसर मिल सकता है। कहा गया है- ऐसा कोई अक्षर नहीं होता जो मंत्र नहीं बन सकता। ऐसा कोई मूल नहीं है जो औषध के रूप में काम नहीं आ सकता और सामान्यतया ऐसा कोई आदमी नहीं जिसमें कोई योग्यता न हो। तो कमी किस बात की है? योजना करने वाले, प्रबन्धक, नियोजक की कमी हो सकती है।
नियोजक व्यक्ति मिल जाये कि कौनसा अक्षर कहां जोड़ा जाए जिससे अच्छा मंत्र बन जाये। कौनसी जड़ी बूटी किस बिमारी में काम आ सके, यह ज्ञान हो तो मूल औषध के रूप में काम आ सकती है। किस आदमी को कहां लगाना चाहिये, क्या उपयोग करना चाहिए, यह विवेक हो तो उस आदमी का उपयोग किया जा सकता है। जिसकी जहां अच्छी उपयोगिता हो सके, उस रूप में उसे संयोजित कर दिया जाये तो आदमी बड़ा उपयोगी हो सकता है, उसका जीवन सार्थक हो सकता है। जितना समय मिले उसे स्वाध्याय, जप या तत्व चर्चा में उपयोग किया जा सकता है। कहा गया है कि बारह प्रकार का जो तप है, उनमें स्वाध्याय के समान कोई दूसरा तपः कर्म न है और न होगा। ज्ञान का विकास करने के लिए स्वाध्याय की अपेक्षा रहती है। स्वाध्याय भी योग्यता के अनुसार होना चाहिए। आगम स्वाध्याय करने की भी अपनी अलग-अलग समय सीमा है।
भगवान महावीर की वाणी जो आगमों में गुंफित है उसमें अथाह ज्ञान राशि है। आचार्य भिक्षु के ग्रन्थों में भी कितनी ज्ञान की बातें मिलती हैं। श्रीमद् जयाचार्य ने तो भगवती जोड़ की विशाल रचना कर दी थी। गुरुदेव तुलसी एवं आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी का भी विशाल साहित्य भंडार है। साहित्य के स्वाध्याय से ज्ञान संवृद्धि और समृद्धि हो सकती है। हमारे यहां आगम संपादन का कार्य हुआ है, वर्तमान में हो भी रहा है। जैन विश्व भारती तो मानो ज्ञान का भंडार है, वहां कितना साहित्य, कितनी पांडुलिपियां, पुरानी प्रतियां प्राप्त हो सकती हैं। आगम वांग्मय, ग्रंथ आदि साहित्य के स्वाध्याय से, चिन्तन-मनन से, अनुप्रेक्षा से ज्ञान की संवृद्धि और समृद्धि हो सकती है। साधु-साध्वियाँ स्वाध्याय करें, गृहस्थ भी स्वाध्याय कर सकते हैं। आत्म कल्याण, कर्म निर्जरा के अनेक मार्ग हैं। स्वाध्याय के साथ ध्यान का भी महत्व है। स्वाध्याय के साथ ध्यान को भी जोड़ा जा सकता है, जो पढ़ा उस पर चिन्तन-मनन करें। भाव क्रिया अपने आप में ध्यान है। जो कार्य करें उसमें अपने चित्त को नियोजित कर के रखें, वह भी ध्यान हो सकता है।
ज्ञान होने से करणीय और अकरणीय की स्पष्टता हो सकती है। स्वाध्याय से ज्ञान होता है और ज्ञान से हमारा आचार भी सम्यक् हो सकता है। गलती होने का एक कारण है ज्ञान का अभाव। ज्ञान होने से ज्ञानाभाव के कारण होने वाली गलतियों का निरोध हो सकता है। अनुभव और प्रशिक्षण से आदमी अच्छा कार्य कर सकता है। हमारा कार्य सुसंपादित हो सके इसलिए ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। पूज्य प्रवर ने फरमाया कि स्वास्थ्य लाभ हेतु साध्वीप्रमुखाजी का प्रवास पुणे में ही निर्णीत किया गया है। साध्वीवर्याजी ने मंगल उद्बोधन देते हुए कहा कि जब आदमी दुनिया से जाता है तो साथ में अच्छे या बुरे किये हुए कर्म लेकर जाता है। अच्छे कर्म से अच्छे फल मिलते हैं और बुरे कर्मों का बुरा फल मिलता है। हर व्यक्ति सुख, सफलता और शांति चाहता है। सत्पुरुषार्थ से व्यक्ति शुभ कर्मों को प्राप्त कर सकता है। हमें सुकृत करना है और अपने आचरण और व्यवहार को सुंदर बनाना है। हमें यह दुर्लभतम मनुष्य जीवन, जैन धर्म, तेरापंथ धर्मसंघ और आचार्य श्री महाश्रमण जी जैसे गुरु मिले हैं, यह सब हमारे सुकृत का ही परिणाम है।
साध्वी मंगलप्रज्ञाजी ने भी अपनी भावना अभिव्यक्त करते हुए कहा कि हमें तीर्थकर कल्प अतिशयधारी आचार्य प्राप्त हुए हैं। सहवर्ती साध्वी वृंद ने सुमधुर गीत का संगान किया। सन 2023 में पूना में चातुर्मास करने वाली साध्वी उज्जवलप्रभा जी ने भी पूज्य प्रवर की अभिवन्दना में अपनी भावना अभिव्यक्त की। स्थानीय सभी संस्थाओं के पदाधिकारियों की ओर से संजय मरलेचा ने पूज्यप्रवर के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित की। साधु-साध्वियों ने पूज्य प्रवर से वर्षीतप के प्रत्याख्यान ग्रहण किये। दिव्यांग बालक प्रथमेश सिन्हा ने पूज्य चरणों में अपनी भावना अभिव्यक्त की।कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।