तप, आर्जव और संयम से सिद्धि प्राप्ति की करें कामना: आचार्यश्री महाश्रमण
मानवता के सजग प्रहरी आचार्य श्री महाश्रमण जी आज प्रातः सूपा जीआईडीसी क्षेत्र में पधारे। जनोद्धारक आचार्य प्रवर ने मंगल देशना प्रदान कराते हुए फरमाया कि इस मनुष्य जीवन में सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है- अपनी आत्मा को निर्मल बनाने की साधना करना। साधु, महंत, त्यागी बन जाना तो बहुत बड़ी बात है। अविवाहित अवस्था मे साधु बन लंबे काल तक संयम पालना और भी बड़ी बात हो जाती है। गृहस्थ भी कई अच्छे साधक हो सकते हैं। जो साधु अमोहदर्शी बन जाते हैं, जिनके सामने वीतरागता रहती है, वे अपने कर्मों का क्षपण कर देते हैं। वे तपस्या में निरत रहते हैं, लंबी तपस्या करते हैं।
कई प्रकार की तपस्या हो सकती है। ऊनोदरी करना भी तप है। ऊनोदरी करने से शरीर भी स्वस्थ रह सकता है और साधना स्वाध्याय में भी मन लग सकता है। सामने मनोज्ञ मनोग्य पदार्थ हैं, जिसके प्रति आकर्षण है, उनको नहीं खाना, अस्वीकार कर देना साधना-संयम का प्रयोग है। विगय वर्जन कर देना, रस परित्याग करना भी एक तरह की संयम की साधना है। नहीं खाना अच्छी बात है, पर भीतर से आसक्ति भी छूट जाना और बड़ी बात है। बढ़िया चीज हमें मिलती है तो कम बढ़िया चीज के प्रति हमारा आकर्षण कम हो जाता है। परम तत्त्व का दर्शन हो जाने पर पदार्थों के प्रति आसक्ति छूट जाती है। बाहर के साधनों से विरक्ति का भाव जाग जाए तो भीतर में आनन्द, संतोष का भाव उभर सकता है, सुख मिल सकता है।
स्वाध्याय, ध्यान, प्रायश्चित, विनय और वैयावृत्य भी तप हैं। नवदीक्षित छोटे साधु, रुग्ण साधु, तपस्वी साधु की भी सेवा होती है, पदासीन की भी सेवा करनी चाहिए। सेवा के दस प्रकारों में सर्वप्रथम आचार्य की सेवा है। इस प्रकार जो संयम में रत हैं, ऋजु हैं, सरल हैं, अमोहदर्शी हैं, तप में रत हैं, वे कर्मों का क्षयकर पाप कर्म को धुन डालते हैं। ऐसे जो सदा शांति में रहने वाले, ममकार से रहित रहने वाले हैं, आत्म विद्या से युक्त हैं, वे या तो देवलोक को या सिद्धि को प्राप्त होते हैं। हम सिद्धि प्राप्ति की कामना करें और तप, आर्जव, संयम आदि में विकास करें यह हमारे लिए श्रेयस्कर हो सकता है। पूज्य प्रवर के स्वागत में, गुरुदेव विद्यालय की ओर से संतोष मगर एवं सभापति गंगाराम वेलकर ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।