अतीन्द्रिय ज्ञान के धनी थे आचार्यश्री महाप्रज्ञ

अतीन्द्रिय ज्ञान के धनी थे आचार्यश्री महाप्रज्ञ

जन्म और जीवन दोनों का महत्व होता है परंतु ऐसा योग कोई पुण्यात्मा भाग्यशाली को ही प्राप्त होता है। कई व्यक्तियों का जन्म तो उच्च कुल में होता है परंतु शरीर संपदा और संस्कार संपदा के अभाव में वे धन्यता की अनुभूति नहीं करते। जैसे मृगा लोढ़ा जिसका जन्म तो शाही परिवार में हुआ परंतु शरीर संपदा और संस्कार दोनों से शून्य सा रहा। इसका मुख्य कारण अपने कर्म को ही मानना चाहिए। आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी का जन्म राजस्थान के झंुझनू जिले के टमकोर के चौरड़िया परिवार में पिता तोलारामजी माता बालू देवी की कुक्षि से हुआ। आपके जन्म से परिवार में हर्ष की लहर सी आ गई। परंतु लघुवय में पिताजी का स्वर्गवास सबके लिए असह्य हो गया। आयुष्य के आगे किसी का जोर नहीं चलता। परिवार में कमाने वाला कोई नहीं रहा तब माता बच्चों को लेकर पीहर चली गई। आपका ननिहाल सरदारशहर के पास खींवसर में था, आपका पालन पोषण वहीं हुआ।
बड़े होने पर पारिवारिक जन टमकोर ले आये। उस समय टमकोर में मुनि छबील जी, मुनि मूलचंद जी का चौमासा था। आप अपनी माता के साथ दर्शन प्रवचन के लिए जाते मुनि मूलचन्द जी का ध्यान आप पर केंद्रित हो गया और मुनिश्री ने आपको प्रारंभिक ज्ञान करवाया। आपकी ज्ञान के प्रति रुचि देखकर संत आगे से आगे सिखाते गये। उस समय बोल-बोल कर सिखाया जाता था। आपकी एकाग्रता को देखकर मूलचन्दजी स्वामी ने एक दिन पूछा क्या दीक्षा लोगे? तब कहा- ले लूंगा। संतों का मन बढ़ता गया और सीखने का क्रम व्यवस्थित चलता रहा। संतों की सत्प्रेरणा से वैराग्य पुष्ट होता गया। संतों ने कहा दीक्षा लेनी है तो पहले गुरुदेव के दर्शन करो, अर्ज करो, तभी दीक्षा हो पाएगी।
आपने पूज्य कालूगणी के दर्शन प्रथम बार गंगाशहर में किए और कालूगणी के दर्शन प्रवचन से आपका संकल्प और मजबूत हो गया। उस समय आपका मुनि तुलसी से परिचय हुआ और गहरा आत्मीय संबंध सा हो गया जो आचार्यश्री तुलसी के अंतिम समय तक बढ़ता ही रहा। आपने गंगाशहर में ही पूज्य कालूगणी के सामने दीक्षा की अर्ज की और कालूगणी ने आपकी तीव्र भावना देखकर साधु प्रतिक्रमण का आदेश दे दिया। आप जब टमकोर आये और सबने सुना कि साधु प्रतिक्रमण का आदेश मिल गया है तो परिवार और गांव में सबको खुशी हुई। संतों ने भी सोचा प्रयास सफल हो गया।
कालूगणी ने चतुर्मास के बाद सरदारशहर की ओर विहार किया और सरदारशहर से पूर्व ही मां-बेटे ने गुरुदेव के दर्शन कर दीक्षा की अर्ज की। कालूगणी ने अत्यन्त कृपाकर बालक नथमल की दीक्षा की घोषणा की तब बालक नथमल ने गुरुदेव से अपनी माता की दीक्षा की अर्ज की। परंतु गुरुदेव की मानसिकता उस समय बालू जी की दीक्षा के लिए नहीं थी, परंतु वहां उपस्थित गधैया जी के निवेदन पर मां-बेटे दोनों की दीक्षा की घोषणा की गई। सरदार शहर में सेठिया जी के बाग में आपकी दीक्षा हुई और दीक्षा के बाद आपको मुनि तुलसी के कुशल मार्गदर्शन में रहने का लंबा अवसर मिला। आपकी वैराग्य वृत्ति, विनम्रता, पाप भीरूता, अध्ययनशीलता, कर्तव्य परायणता दिनों दिन बढ़ती रही। कहावत भी है जैसा संग, वैसा रंग। वास्तव में यह कहावत इस प्रकार चरितार्थ हुई कि स्वयं आचार्यश्री तुलसी कई बार फरमाते कि मेरे महाप्रज्ञ को अतीन्द्रिय ज्ञान है। आपने मारवाड़ी, राजस्थानी ही नहीं, हिंदी, संस्कृत, प्राकृत में भी अच्छी प्रतिष्ठा प्राप्त की। दिग्गज लोग आपको विवेकानंद ही नहीं योगीराज भी कहते। आपके द्वारा लिखित, संपादित आगम आदि अनेक ग्रंथ आज विद्वद वर्ग के लिए पठनीय संग्रहनीय बन गये। आपने गुरु का इतना विश्वास प्राप्त किया कि तेरापंथ समाज के लिए यह एक स्वर्णिम पृष्ठ बन गया कि आचार्य ने अपने रहते हुए युवाचार्य को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित कर स्वयं पदमुक्त हो गये। आचार्य महाप्रज्ञ जी ने प्रेक्षाध्यान का आविष्कार कर जन-जन को जीने की कला सिखाई। बाबा रामदेव, श्री श्री रविशंकर महाराज भी गौरव के साथ सबको यह बताते हैं कि हमने ध्यान योग जो सीखा है वह आचार्यश्री तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञजी की कृपा का प्रसाद है।
जैन समाज में तेरापंथ को आज जो इतना सम्मान मिलता है वह आचार्यश्री तुलसी और आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी की दूरदर्शिता, युगीन चिंतन, आगम संपादन, समन्वय पूर्ण नीति का ही परिणाम है। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी का महनीय व्यक्तित्व आध्यात्मिक, वैज्ञानिक, राजनीतिक, औद्योगिक सबके लिए प्रेरणा बना। भारत के राष्ट्रपति अब्दुल कलाम जैसे व्यक्तित्व आपके परम भक्त बने। प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी जैसे व्यक्तित्व आपके पाठक बने।
आपकी ही दूरदर्शिता से हमें वीतराग कल्प महातपस्वी युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण जी जैसे गुरु का कुशल नेतृत्व मिला जो आज दिग्भ्रात अशांत व्यक्तियों के लिए प्रकाश स्तंभ कहा जा सकता है। आचार्य महाश्रमणजी की निर्भीकता, निश्छलता, निर्गर्विता, निजानंद लीनता देखकर दर्शक अपने भाग्य की सराहना करता है परंतु आचार्य महाप्रज्ञ जी का भी श्रद्धा से स्मरण करता है जिन्होंने एक योग्य और अनुपम व्यक्ति को अपना उत्तराधिकार सौंपकर संघ को निश्चिंत और दीर्घजीवी बना दिया। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी के 15वें महाप्रयाण दिवस पर कामना करता हूं कि आप हमें साधना में सतत् सहयोग प्रदान कराते रहें जिससे हमारा जीवन भी सार्थक और सफल हो सके। शरीर से विदा होना प्राकृतिक शाश्वत नियम है परंतु आपके युगीन चिंतन और तटस्थ, मध्यस्थ, आत्मस्थ, प्रशस्त भावधारा से लोग सदा आपका स्मरण करते रहेंगे और आपके स्मरण मात्र से आधि, व्याधि, उपाधि से मुक्त बन पूर्ण स्वस्थता और आनंद की अनुभूति करते रहेंगे।