महावीर जयंती से अध्यात्म, अहिंसा, संयम व तप की लें प्रेरणा : आचार्यश्री महाश्रमण
भगवान महावीर के सक्षम प्रतिनिधि परमपूज्य आचार्य श्री महाश्रमण जी ने परम प्रभु भगवान महावीर के प्रति भावांजलि प्रकट करते हुए फरमाया कि आज परमात्मा, परम वन्दनीय भगवान महावीर की जन्म जयंती-जन्म कल्याणक दिवस का अवसर, चैत्र शुक्ला त्रयोदशी का दिन है। आज से संभवतः 2622 वर्ष पूर्व एक शिशु ने राजा सिद्धार्थ के यहां रानी त्रिशला की कुक्षि से जन्म लिया था।
भगवान महावीर का जन्म ईसा पूर्व 599 और विक्रम पूर्व 542 चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को हुआ था। जन्म और मृत्यु हमारी सृष्टि में चलते रहते हैं। जन्म अकेला नहीं आता, मानो वह मृत्यु को भी साथ में लेकर आता है। महावीर का जन्म हुआ और बाद में परिनिर्वाण भी हुआ। उनके 2550 वें महाप्रयाण दिवस का भी उपलक्ष्य है। महापुरुष दुनिया में आते हैं और कुछ देकर चले जाते हैं। आज भगवान महावीर सदेह रूप में हमारे सामने नहीं है, परन्तु जैन आगम हमारे पास उपलब्ध हैं। अनके ग्रन्थ, अनेक संत और अनेक पंथ हमें प्राप्त हैं। ग्राहक बुद्धि से गुणों को पढ़ा जाये तो ग्रन्थों से कितना ज्ञान ग्रहण किया जा सकता है। संतो के उपदेश से सन्मति प्राप्त हो सकती है। कई बार अनेक पंथ एक जगह जाकर मिल जाते हैं, मंजिल एक हो जाती है। पन्थों में भेद हो सकता है, तो अभेद भी हो सकता है। भेद और अभेद हम देख सकते हैं, अनेकान्त में भेद भी है तो अभेद भी है। हमारा दृष्टिकोण अनेकान्तवादी हो जाये। दृष्टिकोण को दुराग्रह वाला न बनाकर अनाग्रह वाला बनाएं।
जैन दर्शन कहता है कि एक पदार्थ में नित्यता है उसी पदार्थ में उस समय अनित्यता भी है। दीये से लेकर आकाश तक सारे पदार्थ नित्य अनित्य दोनों हैं। आकाश द्रव्य है उसमें नित्यता की प्रधानता है, दीया पर्याय है उसमें अनित्यता की प्रधानता है। जैन दर्शन का एक सिद्धांत है- आत्मवाद। आत्मा शाश्वत है। आत्मा पूरे लोक में फैल सकती है और संकुचित होती है तो एक कुंथु के शरीर में भी संकुचित हो सकती है। जैन दर्शन कर्मवाद को भी मानता है। कर्मों के आधार पर जीव का विश्लेषण किया जा सकता है। पुनर्जन्मवाद है, नियतिवाद है, तो पुरुषार्थवाद भी है। पुरुषार्थ एक सीमा तक हो सकता है पर नियतिवाद के लिए पुरुषार्थ को नहीं छोड़ना चाहिए। भगवान महावीर जन्म कल्याणक हमारी एकता का प्रतीक है। हम सब में सौहार्द, प्रेम का भाव बना रहे। बच्चों में भी अच्छे संस्कार रहें, नशे और मांसाहार से बचे रहें।
पूज्यवर ने आगे फरमाया िक आचार्य श्री तुलसी और आचार्य आनन्द ऋषिजी समकालीन रहे हैं, उनका मिलन भी हुआ था। आचार्य शिवमुनि जी से भी हमारा कई बार मिलना हुआ है। हमारी अहिंसा, संयम और तप की साधना अच्छी चलती रहे। हम अकषाय की साधना करते रहें। कषाय मुक्ति ही मुक्ति का आधार बन सकता है। गुरु अलग-अलग हो सकते हैं, हम अपने गुरु से ज्ञान ग्रहण कर अपनी आत्मा का उद्धार करने का पुरुषार्थ करें। भगवान महावीर का जीवन काल सुदीर्घ नहीं था, पर थोड़े काल में ही उन्होंने बढ़िया काम कर दिया था। इसलिए वे हमारे लिए स्मरणीय - वंदनीय हो गए। दुनिया में हिंसा, भय की स्थिति दूर हो, मैत्री और अहिंसा की भावना बढ़े। महावीर जयंती से हमें अध्यात्म, अहिंसा, संयम और तप की प्रेरणा मिले, हम आत्मोत्थान की दिशा में आगे बढ़ें, दूसरों की जितनी हो सके आध्यात्मिक सेवा करते रहें।
साध्वीवर्या संबुद्धयशा जी ने अपने उद्बोधन में कहा कि भगवान महावीर ने तत्त्व को समझने के लिए अनेकांतवाद का सिद्धांत दिया। एकांत नित्य और एकांत अनित्य दोनों अतिवादों को स्वीकार नहीं किया, नित्यानित्य वाद को स्वीकार किया। संपूर्ण प्रकृति में विरोधी युगलों का सह अस्तित्व होता है। विरोधों के बीच में बैठ कर अविरोध का जीवन जीने का माध्यम है अनेकांत। अनेकांत हमें सिखाता है कि वस्तु में अनंत धर्म होते हैं, एक मुख्य हो जाता है बाकी गौण हो जाते हैं। जो व्यक्ति सापेक्षता के सिद्धांत को समझ लेता है, वह कभी विवाद में नहीं जाता। सम्यक्त्व से सिद्धत्व की ओर प्रस्थान करने का, अनाग्रह की चेतना विकसित करने का आयाम है अनेकांतवाद। हमारे जीवन में महावीर के सिद्धांत उतर जाएंगे तो हम समस्याओं का समाधान प्राप्त कर पाएंगे।
मुख्य मुनि महावीर कुमार जी अपने उद्बोधन में कहा कि भगवान महावीर का जन्म इस धरती के लिए अनुपम अवसर था। वर्तमान हिंसा के वातावरण में भगवान महावीर की अहिंसा ही समाधान का कारण हो सकता है। हम हमारे भाग्य के निर्माता स्वयं ही हैं। भगवान ने कर्मवाद का सिद्धान्त बताया। कर्म के कारण ही सृष्टि में विभक्त भाव है। कर्मवाद सूक्ष्म ज्ञान प्रदान करने वाला है। उन्होंने कर्म को पौद्गालिक माना है। कर्म को व्यक्ति अपने पुरुषार्थ से परिवर्तित कर सकता है, समय से पूर्व उसकी उदीरणा कर सकता है, उसके स्वभाव में परिवर्तन कर सकता है। जीव की चार मुख्य शक्तियां हैं, ज्ञान, दर्शन, चारित्र और शक्ति। ज्ञान को आवृत्त करने वाला ज्ञानावरणीय कर्म, दर्शन को आवृत्त करने वाला दर्शनावरणीय कर्म, आत्मा के आनंद को बाधित करने वाला मोहनीय कर्म और आत्म शक्ति को प्रतिहत करने वाला अंतराय कर्म होता है। ये चार कर्म आत्मा के गुणों को नष्ट करने वाले हैं, उन पर घात करने वाले हैं इसलिए इन्हें घाती कर्म कहा जाता है। इनके अलावा बाकी जो कर्म हैं नाम, गोत्र, आयुष्य, वेदनीय कर्म। इनका आत्मा से सीधा संबंध नहीं है, शरीर से संबंध है। आत्मा के साथ जब कर्म पुद्गलों का प्रदेश बंध होता है तब आठ रूपों में उसका स्वभाव निर्माण हो जाता है। हर व्यक्ति कर्म करने में स्वतंत्र होता है किंतु उन्हें भोगने में स्वतंत्र नहीं होता । हम पाप कर्मों से बचने का प्रयास करने का करें, संवर और निर्जरा से कर्मों को रोक कर आत्मा के शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करें। पूज्य गुरुदेव के इंगित अनुसार मुनि योगेशकुमार जी ने भगवान महावीर के दर्शन पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि महावीर एक तीर्थंकर ही नहीं एक वैज्ञानिक भी थे। महावीर ने अस्तित्ववाद के बारे में विस्तार से समझाया, उन्होंने नियम को स्वीकार किया नियंता को नहीं। इसी क्रम में मुनि कुमारश्रमण जी
ने कहा कि कोई व्यक्ति तभी महान बनता है जब वह युग की समस्या का समाधान करता है। भगवान ने कहा कि मनुष्य जाति एक है, भगवान ने अनेकांत का सिद्धांत स्थापित किया। हम अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकांत के सिद्धांत को अपने जीवन में अपनाने का प्रयास करें। कार्यक्रम से पूर्व गुरु गणेश मंडल की बहनों एवं आनंद चालीसा ग्रुप के सदस्यों ने गीत की प्रस्तुति दी। आनन्द जैन पाठशाला के बच्चों ने नशे के दुष्परिणाम पर सुन्दर प्रस्तुति दी। पूज्यप्रवर के स्वागत में जैन श्रावक संघ जामखेड़ के अध्यक्ष दिलीप भाऊ गुगले, आमदार रामजी शिन्दे, आकाश बाफना, बीड़ महिला मंडल, संभाजीनगर महिला मंडल, मधुकर रालेभर, जामखेड़ महाविद्यालय के प्राचार्य डा. डोंगरे, लोकाशाह पत्रिका के संपादक विजय राज बंब ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमार जी ने किया।