चैतन्य की निर्मलता के लिए करें धर्म साधना : आचार्यश्री महाश्रमण
धर्मोपदेशक आचार्य श्री महाश्रमणजी ने वीतराग वाणी की अमृतवर्षा कराते हुए फरमाया कि हमारे जीवन में दो तत्त्व हैं- शरीर और आत्मा। आत्मा और शरीर इन दोनों का योग है, इसी का नाम जीवन है। जब शरीर और आत्मा का वियोग होता है, तो मृत्यु हो जाती है। जब शरीर और आत्मा हमेशा के लिए वियोग, आत्यन्तिक वियोग कर लेते हैं, आत्मा हमेशा के लिए अशरीर बन जाती है, वह मोक्ष होता है। जीवन चेतन और अचेतन का मिश्रण है। पूरी दुनिया में दो ही चीजें हैं- जीव और अजीव। यह सिद्धान्त रहा है कि शरीर और आत्मा अलग-अलग चीजें हैं, इनका अपना-अपना स्वतंत्र अस्तित्व है। भले दोनों का मिश्रण हो पर सत्ता अलग-अलग है जैसे मिट्टी और सोना।
नास्तिक विचारधारा का सिद्धान्त है कि जो जीव है वही शरीर है। आस्तिक विचारधारा का सिद्धान्त अलग माना गया है- शरीर और जीव अलग-अलग हैं। जब तक मोक्ष नहीं होता है, आत्मा एक जीवन के बाद दूसरे जीवन में चली जाती है, पुनर्जन्म को प्राप्त होती है। चैतन्य स्थायी है, शरीर अस्थायी है। शरीर एक पर्याय है पर्याय का विनाश होता है। आत्मा को कोई मार नहीं सकता, काट नहीं सकता। आत्मा स्थायी द्रव्य है, शरीर पर्याय है, इसलिए विनाशधर्मा है। हम चिन्तन करें कि मैं स्थायी के लिए क्या कर रहा हूं और अस्थायी के लिए क्या कर रहा हूं? आत्मा को भी खाना खिलाया जाये, स्नान कराया जाये।
नमस्कार मंत्र की माला, सामायिक, स्वाध्याय, संत दर्शन आत्मा की खाद्य सामग्री हो सकती है। अगले जन्म में हमारा धन साथ में नहीं जाता, स्थूल तन भी साथ में नहीं जाता, परिवार, मित्र-स्वजन भी आगे साथ में चलने वाले नहीं होते हैं। आत्मा के साथ तेजस-कार्मण शरीर साथ में जाते हैं, और कर्म साथ में जाते हैं। हम आत्मा की साधना के लिए क्या कर रहे हैं, यह ध्यान दें। बढ़ती उम्र के साथ जीवन में परिवर्तन करना चाहिए, धर्म की साधना को और बढ़ाने का प्रयास करें। जीवन में सरल रहें। छल-कपट नहीं है, तो आत्मा अच्छी रह सकती है। हम आत्मा की निर्मलता, आत्मा के कल्याण का, आत्मा के उत्थान का प्रयास करें।
कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।