अध्ययन, जप और दान में नहीं करें संतोष : आचार्यश्री महाश्रमण
आदमी के भीतर इच्छा होती है। अनिच्छ कोटि के मनुष्य भी मिल सकते हैं, जिनके मन में लोभ के रूप में कोई इच्छा नहीं होती है। सारे वीतराग अनिच्छ होते हैं। कुछ लोग अल्पेच्छ होते हैं। श्रावक के बारह व्रतों में इच्छा परिमाण व्रत है, भोगोपभोग परिमाण व्रत भी है, जिसके द्वारा इच्छाओं का परिसीमन कर लिया जाता है। कई मनुष्य महेच्छ होते हैं तो कई उदारमना लोग भी होते हैं। हमारे मन में संतोष की प्रधानता आ जाए। ये उद्गार परम् पावन आचार्य श्री महाश्रमणजी ने मंगल प्रेरणा पाथेय प्रदान कराते हुए फरमाए।
इच्छा बढ़े तो विराट रूप ले सकती है। सोने-चांदी के पर्वत दे दिये जाएं तो भी लोभी आदमी संतोष नहीं करता है। इसलिए शास्त्र में कहा गया है कि इच्छा आकाश के समान अनंत है। आकाश का कहीं आरम्भ-समापन नहीं है वैसे ही इच्छा भी आकाश के समान अनंत हो सकती है। इच्छा अच्छी भी हो सकती है तो इच्छा अस्वच्छ भी हो सकती है। आध्यात्मिक उन्नयन की इच्छा अच्छी हो सकती है। व्यक्ति संतोष करें पर अच्छी बातों में असन्तोष भी करें। स्वदार, भोजन, धन और परिग्रह में संतोष करें। तीन चीजों - अध्ययन, जप और दान देने में संतोष नहीं करना चाहिए। पूज्यवर ने प्रसंगवश प्रेरणा देते हुए फरमाया कि आगम तो कामधेनू है, उसका दोहन करते जाओ। जितना हो सके आगम का मंथन करते जाओ, उसमें संतोष मत करो।
आचार्यवर ने आगे फरमाया कि आग में कितना ही ईंधन डालो सब स्वाहा हो जाता है, वैसे ही लोभी को कितना भी धन मिल जाये, उसे और पाने की इच्छा रहती है। धन में स्थिरता नहीं रहती है। जुए में, शराब में, बाढ़ आने से, राजा के आदेश से, आग लगने से, चोरी से, सरकारी कर के रूप में आदि अनेक रूपों से धन जा सकता है। गृहस्थों के लिए धन जरूरी भी है पर थोड़े में संतोष रखें, नैतिकता रखें। गृहस्थ कुछ समय धर्माराधना में भी लगाये। इच्छाओं पर ब्रेक लगाने से व्यक्ति का जीवन धन्य हो सकता है।