धर्म है उत्कृष्ट मंगल

स्वाध्याय

धर्म है उत्कृष्ट मंगल

जैन आगम साहित्य में पांच शरीर बतलाए गए हैं-
१. औदारिक शरीर -
यह शरीर स्थूल पुद्गलों से निष्पन्न होता है। इसमें हाड़, मांस, रक्त आदि होते हैं। यह मनुष्यों व तिर्यञ्चों (पशु-पक्षी आदि) के ही होता है।
२. वैक्रिय शरीर -
इस शरीर से छोटापन, बड़प्पन, एकरूप, अनेक रूप आदि विविध क्रियाएं की जा सकती हैं इसलिए इसे वैक्रिय शरीर कहा जाता है। इसमें हाड़, मांस, रक्त आदि नहीं होते। यह जन्मतः देवों और नारकों में होता है। लब्धितः मनुष्यों में भी हो सकता है। यह शरीर वायु में भी माना गया है।
३. आहारक शरीर -
यह एक विशिष्ट प्रकार का शरीर है। यह बहुत सुन्दर होता है। चतुर्दश पूर्वधर मुनि विशेष स्थिति में अपने साधना बल से इस शरीर का निर्माण करते हैं और अपना आवश्यक कार्य इसके माध्यम से सम्पन्न करते हैं।
तत्त्वों में कोई शंका होने पर तीर्थकर या केवली के निकट जाने के लिए लब्धिधर मुनि अपने शरीर में से एक हाथ का पुतला निकालते हैं एवं उस पुतले को तीर्थकर या केवली के पास भेजते हैं। यह पुतला वहां से उत्तर लेकर मुनि के शरीर में प्रवेश कर प्रश्न का उत्तर देता है। यह समूची क्रिया अत्यन्त अल्पकाल में ही सम्पन्न हो जाती है। प्रश्नकर्ता को पता ही नहीं चलता कि मैंने उत्तर विलम्ब से पाया है।
४. तैजस शरीर -
यह सूक्ष्म शरीर है, तेजोमय है। इसे विद्युत् शरीर भी कहा जाता है। यह सभी सांसारिक प्राणियों में निरन्तरतया विद्यमान रहता है। इसके अंगोपांग नहीं होते हैं।
५. कार्मण शरीर -
ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों के पुद्गल-समूह से जो शरीर बनता है, वह कार्मण शरीर है। यह भी प्रत्येक सांसारिक प्राणी के निरन्तरतया रहता है। यह चतुःस्पर्शी और सूक्ष्मतर होता है।
आत्मा का शरीर से सर्वथा छुटकारा संसारी अवस्था में कभी नहीं होता। केवल मोक्षावस्था में ही आत्मा सर्वथा अशरीर बनती है। इसीलिए, सिद्ध और मुक्त आत्मा का एक नाम है अशरीरी। आत्मा अमन और अवाक् तो संसारी अवस्था में भी बन जाती है। परन्तु वह अशरीर एकमात्र सिद्धावस्था में बनती है। साधक का अंतिम लक्ष्य होता है अशरीर अवस्था को प्राप्त करना। उस अवस्था को प्राप्त करने के लिए भी शरीर को साधन बनाया जाता है। साधना के विभिन्न प्रयोग इसी शरीर के द्वारा किए जाते हैं, इसीलिए कहा गया है- 'शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्।' धर्म का प्रथम साधन शरीर है, यह उसका उज्ज्वल पक्ष है।
शरीर एक साधन है। उसका प्रयोग धर्म-कार्यों में भी किया जा सकता है और पाप-कार्यों में भी। हिंसा, चोरी आदि विभिन्न अपराध और पाप भी इस शरीर के द्वारा किए जाते हैं, इसीलिए यह कहना भी गलत नहीं होगा– शरीरं पाप साधनम् शरीर पाप का साधन है। यह व्यक्ति के विवेक पर निर्भर है कि वह उसे धर्म का साधन बनाता है अथवा पाप का साधन। आध्यात्मिक दृष्टिकोण वाला व्यक्ति और साधना-समर्पित व्यक्ति उसे धर्म का साधन बनाता है।
कायक्लेश क्या है?
निर्जरा के बारह प्रकारों में पांचवां प्रकार है- 'कायक्लेश'। इस तप के अन्तर्गत व्यक्ति अपने शरीर को धर्म का साधन बनाता है। काय का अर्थ है शरीर और क्लेश का अर्थ है तपाना, बाधित करना अथवा साधना। जिस प्रकार शस्त्र को सुतीक्ष्ण बनाने के लिए उस पर धार की जाती है उसी प्रकार शरीर को साधना के योग्य बनाने के लिए कायक्लेश तप आवश्यक है। यह एक कायसिद्धि का प्रयोग है। इसके द्वारा शरीर की सहिष्णुता को बढ़ाया जा सकता है।
कायसुखाभिलाषत्यजनं कायक्लेशः-
शरीर को सुख मिले, सुविधाएं मिलें, ऐसी भावना को त्यागना कायक्लेश है।
कायोत्सर्गाद्यासनकरणं कायक्लेशः–
कायोत्सर्ग, आसन आदि का प्रयोग करना कायक्लेश है।