कैसे बनाया संयम के पर्यवों को उज्ज्वल

कैसे बनाया संयम के पर्यवों को उज्ज्वल

महान् संत विनोबाजी ने गांधीजी के दर्शन का सार तीन शब्दों में प्रस्तुत किया 'सत्य, संयम और सेवा।' सत्य जीवन का लक्ष्य है, संयम जीवन की पद्धति है और सेवा जीवन का कार्य है। आचार्य महाश्रमणजी के जीवन में इन तीनों का प्रतिबिम्ब देखा जा सकता है। इन्हीं रहस्य-सूत्रों को अपने जीवन में अपनाकर वे संयम के पर्यवों को उज्ज्वल बना रहे हैं।
जैन आगमों में सत्य को भगवान कहा गया है। गांधीजी ने भी 'Truth is God' कहकर सत्य की गरिमा का मूल्यांकन किया है। आचार्य महाश्रमणजी की साधना का अभिन्न अंग है सत्य। सत्य के साथ निश्छलता (सरलता) का गहरा संबंध है। अध्यात्म का पुष्प सरलता के प्रांगण में खिलता है। सरलता में ही आत्मदर्शन की ज्योति प्रकट होती है। सत्य का आचरण करने वाले व्यक्ति का चित्त पवित्र हो जाता है। सत्य की अभिव्यक्ति के चार माध्यम हैं-
1. काया की ऋजुता
2. भाषा की ऋजुता
3. भावों की ऋजुता
4. अविसंवादन योग।
सत्य में आस्था रखने वाला व्यक्ति कायिक ऋजुता का विकास करता है। सत्यवादी व्यक्ति के जीवन में उठना, बैठना, चलना आदि सारी क्रियाएं बिल्कुल सहज होती हैं, उसके व्यवहार और आचरण में कहीं भी कृत्रिमता का दर्शन नहीं होता। वह यह चिन्तन करता है कि मेरे शरीर के द्वारा कोई भी ऐसा कार्य न हो, जिससे दूसरों का अहित हो। आचार्य महाश्रमणजी अपनी किसी भी प्रवृत्ति के द्वारा किसी को भी चोट नहीं पहुंचाते हैं। गमनयोग के समय यदा कदा सूक्ष्म जीव भी आपके नयनपथ में आ जाते हैं, आप उनको लांघकर आगे बढ़ने से परहेज करते हैं क्योंकि उनका अतिक्रमण करने से उन जीवों की विराधना होती है। आचार्यवर स्वयं उनकी हिंसा के प्रति जागरूक रहते हैं और अपने परिपार्श्व में रहने वालों को भी सजगता का पाठ पढ़ाते रहते हैं।
सत्य में श्रद्धाशील साधक के जीवन में वाचिक ऋजुता स्वतः विकसित हो जाती है। सत्य मार्ग का पथिक कभी भी कटु भाषा का उपयोग नहीं करता, जहां कटुता है वहां भाषा की ऋजुता नहीं होती, सत्य वहीं होगा जहां भाषा की ऋजुता होगी। सत्यनिष्ठ साधक कभी भी अप्रिय भाषा, व्यंग्यात्मक भाषा और कर्कश भाषा का प्रयोग भी नहीं करता और वह ऐसी भाषा का उच्चारण भी नहीं करता, जिससे दूसरों को ठेस पहुंचे। आचार्य महाश्रमणजी का भाषा-विवेक विलक्षण है। आप अनावश्यक वचन की प्रवृत्ति नहीं करते। जब बोलना जरूरी होता है तो विवेकपूर्वक हित, मित, इष्ट और शिष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं। आपका आदर्श वाक्य है-Think Before You Speak. चिन्तनपूर्वक बोलने वाला अपनी वाणी को विशिष्ट और मनोज्ञ बना लेता है।
सत्य का एक महत्त्वपूर्ण आयाम है- भाव ऋजुता। कायऋजुता और भाषाऋजुता के विकास में भावों की ऋजुता अनिवार्य है। मानसिक पवित्रता की साधना करने वाला साधक सदैव जागरूक रहता है-मेरा मन मोह, स्वार्थ, लोभ, राग, द्वेष आदि निषेधक तरंगों से दूषित न हो, मैं किसी का अनिष्ट नहीं करूं। आचार्य महाश्रमणजी की भावात्मक पवित्रता अनुपमेय है। भावधारा की निर्मलता के प्रति सतर्क व्यक्ति अपने चिन्तन को और अपनी वाणी को भी पवित्र बना लेता है। आपके भावों की पवित्रता वाणी और शरीर के माध्यम से स्पष्टरूपेण अनुभूत की जा सकती है।
सत्यनिष्ठ व्यक्ति के जीवन में योगों की लयबद्धता रहती है। उसके तीनों योग एक दिशा में गतिशील रहते हैं, तीनों योगों में परस्पर संवादिता रहती है। वीणा के तार संवादी बनकर झंकृत होते हैं तो मधुर ध्वनि का नाद होता है। एक तार भी यदि शिथिल रह गया तो संवादी स्वर नहीं निकलेंगे। सत्यप्रेमी साधक की कथनी और करनी में एकात्मकता रहती है, द्विरूपता नहीं होती। उसके बाहर और भीतर में कोई भेद नहीं होता। इसलिए महापुरुषों के लिए कहा जाता है- ‘मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम्’ - आचार्य महाश्रमणजी के मन, वचन और कर्म की एकरूपता है। मन में जो चिन्तन करते हैं, उसे ही वाणी के द्वारा व्यक्त करते हैं। जैसा कहते हैं वैसा ही आचरण करते हैं। एक बार काका कालेलकर के पास एक विदेशी व्यक्ति आया। उसने प्रश्न किया- 'महात्मा गांधी के प्रभावशाली व्यक्तित्व का रहस्य क्या था?' काका कालेलकर ने कहा- 'उनकी कथनी और करनी में समानता तथा उनका संयम। उनकी इन दो विशेषताओं ने उनके व्यक्तित्व को प्रभावशाली व आकर्षक बना दिया।' उपर्युक्त दोनों ही विलक्षणताएं आचार्य महाश्रमणजी के जीवन को वैशिष्ट्य प्रदान कर रही हैं।
संयम के पर्यवों को स्फटिक की भांति निर्मल बनाने वाला तत्त्व है- संयम। ठाणं सूत्र में संयम को धर्म की संज्ञा दी गई है। आचार्य महाश्रमणजी के इन्द्रियों का संयम सधा हुआ है। आचार्यप्रवर जो आवश्यक हैं उन्हीं शब्दों को श्रोत्रेन्द्रिय का विषय बनाते हैं। श्रोत्रेन्द्रिय संयम की दृष्टि से विचार करें तो एक नेतृत्व वाले धर्मसंघ के आचार्य होने से आपके सामने चतुर्विध धर्मसंघ की समस्याएं आती रहती हैं। उनको ध्यान से सुनते हैं और सीमित शब्दों में उनका समाधान देने का प्रयास करते हैं। प्रिय-अप्रिय शब्द, प्रिय- अप्रिय रूप, मनोज्ञ-अमनोज्ञ गंध, प्रिय-अप्रिय स्पर्श आपके मन को प्रभावित नहीं करते, क्योंकि आप शब्दातीत, रूपातीत, गंधातीत, रसातीत और स्पर्शातीत जगत् में प्रवेश करने की साधना कर रहे हैं। यह तब संभव होता है जब साधक अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण कर लेता है। इसलिए एक विशिष्ट साधक की साधना के संदर्भ में कहा जाता है- 'पश्यन्नपि न पश्यति' वह देखता हुआ भी नहीं देखता है। 'शृण्वन्नपि न शृणोति'-वह सुनता हुआ भी नहीं सुनता है। 'जिघ्रन्नपि न जिघ्रति'-वह सूंघता हुआ भी नहीं सूंघता है।
प्रवृत्ति के तीन स्रोत हैं-मन, वचन और काय। आचार्य महाश्रमणजी अपने मन, वचन और शरीर का संयम कर साधना के क्षेत्र में अनवरत गतिमान हैं। यही वजह है कि आचार्यप्रवर अनावश्यक स्मृति, अनावश्यक चिन्तन और अनावश्यक कल्पना में समय जाया नहीं करते। आपके मन की एकाग्रता सधी हुई है। कभी-कभी आप पत्र लेखन या अन्य कोई भी कार्य करते हैं, उस दौरान कोई विशिष्ट व्यक्ति आ गया अथवा कोई मंगलपाठ सुनने आ गया, कोई अपनी समस्या लेकर आ गया, उन सारे कार्यों को सम्पादित करते हुए भी आचार्यवर की मूल कार्य से संबद्ध एकाग्रता भंग नहीं होती। इससे यह प्रतीत होता है कि आपने अपने मन का संयम सिद्ध कर लिया है।
आचार्य महाश्रमणजी अध्यात्म के सुमेरु हैं। अध्यात्म के पथ पर चलने वाले पथिक का वाक्-संयम सहज ही सध जाता है। उसके मन में प्रश्न पैदा होता रहता है- 'में क्यों बोलूं?, क्या बोलूं? क्या मेरा बोलना अपेक्षित है?' अध्यात्म के क्षेत्र में बोलने का ज्यादा अवकाश नहीं रहता। बोलने की अपेक्षा व्यावहारिक जगत में होती है। आचार्यवर का दर्शकों के साथ पहला संपर्क मुस्कान के साथ प्रारंभ होता है। जब बोलना अपेक्षित होता है, आप बहुत स्वल्प शब्दों का प्रयोग करते हैं। आपश्री की स्वल्पभाषिता, मंदभाषिता, मधुरभाषिता आगन्तुकों को भीतर तक प्रभावित करती है। इसीलिए जैन-जैनेतर कोई भी व्यक्ति आपके सम्पर्क में आता है, वह हमेशा के लिए आपका भक्त बन जाता है। आचार्यश्री महाश्रमणजी साधना के उच्च शिखर पर आरोहण कर रहे हैं। अत्यन्त सीमित शब्दों का प्रयोग कर समग्र धर्मसंघ का सुव्यस्थित संचालन कर रहे हैं।
साधना के क्षेत्र में शरीर की स्थिरता और शरीर के संयम का बहुत महत्त्व है। आचार्य महाश्रमणजी काय-संयम की साधना कर रहे हैं। मैं मुनि अवस्था से ही आपश्री का अवलोकन कर रही हूं। गुरुदेवश्री तुलसी के सान्निध्य में लम्बे-लम्बे कार्यक्रम चलते। उन कार्यक्रमों में आप वज्रासन मुद्रा में उन्मीलित नयन ध्यान करते रहते। वर्तमान में भी यह काय-गुप्ति का प्रयोग सतत् चल रहा है। व्याख्यान का समय हो या कक्ष में बातचीत का प्रसंग हो, आपकी स्थितप्रज्ञता मन को अभिभूत कर देती है। (शेष पेज 19 पर)