स्वाध्याय-योग की अप्रतिम प्रतिमा साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा
अध्यात्म के शिखर पर आरोहण का एक सशक्त सोपान है स्वाध्याय। ‘स्व’ के अध्ययन एवं ‘स्व’ की परिक्रमा से जुड़ा ‘स्वाध्याय’ शब्द व्यापक संदर्भों में प्रयुक्त होता है। स्वाध्याय शुभ योगों में रमण करने की एक सुंदर प्रविधि है। स्वाध्याय के द्वारा अज्ञात विषय ज्ञात बनता है तथा ज्ञात विषय के संस्कार मज्जागत होते हैं। यह ज्ञान को सुस्थिर बनाने का अमोघ उपक्रम है।
साध्वीप्रमुखा श्री विश्रुतविभा जी की साधना का एक अनन्य आयाम है स्वाध्याय। आपका स्वाध्याय के प्रति नैसर्गिक अनुराग है। आपने जीवन के दूसरे दशक में पारमार्थिक शिक्षण संस्था में प्रवेश किया। उस समय आप ब्रह्म मुहूर्त में उठकर नियमित स्वाध्याय किया करती थी। वह क्रम आज भी यथावत् चल रहा है। उस समय आप स्वयं स्वाध्याय करती और अपने आस-पास रहने वाली बहनों को भी प्रेरित करती रहती। आज भी अनेक साध्वियां और समणियां बड़े कृतज्ञ भाव से इस बात का जिक्र करती हैं कि साध्वी प्रमुखा श्री जी की प्रेरणा का ही परिणाम है कि हमारा कंठस्थ ज्ञान आज भी पक्का है। आगम साहित्य में स्वाध्याय के पांच प्रकार निर्दिष्ट हैं- वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा।
ज्ञान की विशदता का उपक्रम है वाचना
स्वाध्याय का पहला प्रकार है वाचना। वाचना का अर्थ है दूसरों को पढ़ाना, अध्ययन कराना। किसी वस्तु का दान देना सरल है, पर ज्ञान का दान देना बहुत कठिन है। यह हर किसी के वश की बात नहीं होती। जो दूसरों को ज्ञान देता है, वह स्व और पर दोनों को लाभान्वित करता है। उसके ज्ञान की विशदता स्वतः बढ़ती है। साध्वीप्रमुखा श्री विश्रुतविभा जी के उपपात में वाचना का क्रम निरंतर चलता रहता है। समणश्रेणी में आपके पास अनेक समणियां रहीं, आप उनको अध्ययन कराती, अध्ययन हेतु प्रेरित करती। समणी प्रसन्नप्रज्ञा जी नवदीक्षित समणी के रूप में आपके पास रही। वे ब्राह्मी विद्यापीठ की एक स्वयंपाठी छात्रा के रूप में अध्ययनरत थी। आप रात्रि में दो बजे से तीन बजे तक उनको पढ़ाती। चार विषयों का कोर्स पूर्ण कराया। उनके जीवन का यह एक ऐसा संस्मरण है जिसे याद कर उनका हृदय गद्गद् हो जाता है। साध्वी बनने के बाद भी आपके अध्ययन-अध्यापन दोनों का क्रम चलता रहा। सबसे बड़ी बात यह है कि आज भी वह क्रम निर्बाध चल रहा है।
योजना आगमवाचन की
साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा जी ने साध्वीप्रमुखा के गरिमामय पद पर प्रतिष्ठित होने के बाद आगमवाचन की सुदीर्घ योजना बनाई। सर्वप्रथम संस्कृत भाषा में प्रणीत आचारांगभाष्य का वाचन प्रारंभ दिया। प्रातःकालीन अर्हत् वंदना से पूर्व अनेक साध्वियां आपके उपपात में पहुंच जाती। एक-एक शब्द का अर्थसहित वाचन होता तथा साथ-साथ परिचर्चा भी चलती। उसके बाद आयारचूला का अर्थ और टिप्पण सहित वाचन कराया। सूत्रकृतांग प्रथम श्रुतस्कन्ध का वाचन परिसंपन्नता पर है। आगे सूत्रकृतांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध का वाचन संभावित है। रात्रि के समय भी आपके पास वाचन चलता है। मुंबई चतुर्मास में अति व्यस्तता के बावजूद आपने साध्वियों को दसवेआलियं, कल्याण मंदिर आदि ग्रंथों का अर्थ सहित वाचन कराया। व्यक्ति स्वयं अध्ययन करता है, कोई ग्रंथ पढ़ता है तो उसके जीवन में ज्ञान का नया दीप प्रज्ज्वलित होता है। वही जब दूसरों को पढ़ाता है तो ऐसा लगता है कि एक दीप से अनेक दीप एक साथ प्रज्ज्वलित हो रहे हैं।
योगदान ज्ञानाराधना में
जो वाचना देता है, वह ज्ञान का वितरण करता है। इसी तरह जो किसी की ज्ञानाराधना में प्रेरक एवं सहयोगी बनता है वह भी प्रकारान्तर से ज्ञान का वितरण करता है। प्रसंग सन् 2005 का है। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी का चतुर्मास दिल्ली में था। आचार्यवर के निर्देश से आपने चार शैक्ष संतों एवं एक शैक्ष साध्वी इस प्रकार पांच विद्यार्थियों को छठी क्लास से अध्ययन शुरू करवाया। सात वर्षों तक अध्ययन का क्रम चला। सप्तवर्षीय अध्ययन की संपन्नता पर आचार्य श्री महाश्रमण जी की सन्निधि में अनौपचारिक दीक्षान्त समारोह सा हो गया। उस समय आचार्यवर ने यही फरमाया- इन पांचों के अध्ययन में प्रिंसिपल की भूमिका रही मुख्य नियोजिका साध्वी विश्रुतविभा जी की।
आचार्यश्री महाश्रमणजी का सन् 2018 का चतुर्मास चेन्नई में था। उस समय हमारे धर्मसंघ में महाप्रज्ञ श्रुतराधना के रूप में गहन-गंभीर आगमाधारित पाठ्यक्रम की योजना बनी। उसकी पृष्ठभूमि में भी मुख्य नियोजिका जी की प्रार्थना निमित्त बनी। आचार्यवर ने पाठयक्रम की पूरी रूपरेखा तैयार करवाई और उसके संचालन की ऑफिशियल जिम्मेदारी आपको सौंप दी। आज भी इस पाठ्यक्रम से जुड़ी संपूर्ण प्रक्रिया का मुख्य दायित्व आप पर है। इस प्रकार अनेक ज्ञानार्थियों की ज्ञानाराधना में आपका विशेष योगदान रहा है। आपका एक सुंदर सपना है कि हमारे धर्मसंघ में साधु-साध्वियों के ज्ञान का धरातल ठोस बने। ज्ञान के पर्यव निर्मल से निर्मलतर हों।
संदेह-निवर्तन का उपाय है जिज्ञासा
स्वाध्याय का दूसरा प्रकार है पृच्छना। जिज्ञासा ज्ञानचेतना के विकास का पायदान है। साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभाजी के मन में जिज्ञासा की उर्मियां उठती रहती हैं। यदा कदा आपकी जिज्ञासाएं मुखर भी होती हैं। कहा जाता है जिसके भीतर जिज्ञासा होती है वह अपने संदेहों का निवर्तन कर लेता है।
एक बार महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभा जी की सन्निधि में ‘नीतिशतकम्’ ग्रंथ का अर्थ चल रहा था। वहां एक पंक्ति है -‘जातिर्यातु रसातलं गुणगणस्तस्याप्यधो गच्छतां’- आपने जिज्ञासा की - महाराज! जैसे ‘यातु’ क्रिया है वैसे ही गच्छतात् क्रिया का प्रयोग हो सकता था, गच्छतां क्यों? साध्वी प्रमुखाश्रीजी ने फरमाया- प्रश्न उचित है, इस संदर्भ में सोचकर बताना होगा। आपने उसी समय वहां उपस्थित साध्वियों को प्रेरणा देते हुए कहा- जब भी वाचन होता है मुख्य नियोजिका जी जिज्ञासा करती रहती हैं। जिज्ञासा की वृत्ति सबमें होनी चाहिए। इससे ज्ञान का विकास होता है।
महाश्रमणी जी अपने वक्तव्यों में जब भी संस्कृत या प्राकृत भाषा के श्लोक फरमाती तो आप बड़े गौर से सुनती। यदि किसी भी शब्द अथवा चरण का अर्थ समझ में नहीं आता तो स्थान पर आने के बाद महाश्रमणजी जी से पूछकर अर्थ को हृदयंगम करने का प्रयास करती। आज भी आप कोई ग्रंथ पढ़ती हैं और यदि कोई बात स्पष्ट नहीं होती तो उसे अनदेखा नहीं करती। तत्काल संबद्ध साध्वियों से पूछती हैं अथवा कभी-कभी गुरुदेव से पूछकर भी समाधान प्राप्त करने का प्रयास करती हैं। जिज्ञासा से विषय की स्पष्टता होती है। विषय की जितनी स्पष्टता होती है उतनी ही ज्ञान की गहराई बढ़ती है। साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा जी की ज्ञानविकास की यात्रा में जिज्ञासुवृत्ति की प्रभावी भूमिका रही है।
परिवर्तना बनाम ज्ञान की सुस्थिरता
स्वाध्याय का तीसरा प्रकार है परिवर्तना। परिवर्तना का अर्थ है पुनरावर्तन करना, दोहराना। प्राचीन समय में ज्ञान गुरु-परंपरा से चलता था। इसलिए उस समय कंठस्थीकरण का बहुत मूल्य था। हमारे धर्मसंघ में कंठस्थ करने की सुंदर परंपरा रही है। आज भी दीक्षित होने से पूर्व और दीक्षित होने के बाद कुछ चीजों को कंठस्थ करना अनिवार्य होता है। साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभा जी की प्रारंभ से ही कंठस्थ करने की विशेष अभिरूचि रही है। आपको हजारों-हजारों गाथाएं मुखस्थ हैं। आज भी आप कुछ न कुछ नया सीखती रहती हैं।
कभी-कभी कंठस्थ करना आसान होता है, पर सम्यक् परावर्तन न होने से उसे सुरक्षित रख पाना कठिन होता है। कुछ व्यक्ति प्रारंभ में पुनरावर्तन करते हैं, पर धीरे-धीरे संकल्प शिथिल हो जाता है। अपने संकल्प पर दृढ़ता से डटे रहने वाले विरल होते हैं। साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभा जी उन विरल व्यक्तित्वों में हैं, जो स्वाध्याय को अपनी दिनचर्या का अहम हिस्सा मानती हैं। स्वास्थ्य की अनुकूलता के अभाव में कदाचित् रात्रि में शयन जल्दी करना पड़े, पर सुबह के समय स्वाध्याय का क्रम शायद ही कभी विच्छिन्न होता है। सन् 2008 का आचार्य महाप्रज्ञ का चतुर्मास जयपुर में था। उस समय आपको टाइफाइड हो गया। रात्रि के समय बैचेनी रहती थी, पर चार बजे आप नियमतः उठ जाती। परिपार्श्व में सोने वाली साध्वियों को उठा देती और कहती- स्वाध्याय शुरू करो। कभी-कभी तो ऐसा लगता स्वाध्याय करते-करते आप अपनी वेदना भी मानो भूल गई हैं। इसे आपकी स्वाध्यायप्रियता का एक उच्चतम निदर्शन कहा जा सकता है।
शासनमाता साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभाजी के सान्निध्य में चार बजे के बाद नियमित स्वाध्याय होता था। स्वाध्याय करने वालों की एक मंडली सी बनी हुई थी। उसमें एक मुख्य नाम आपका था। वर्तमान में आपकी सान्निधि में स्वाध्याय का वह क्रम उसी तरह चलता है। वे व्यक्ति सौभाग्यशाली होते हैं, जो ब्रह्ममुहूर्त में उठकर स्वाध्याय करते हैं। ऐसा माना जाता है कि जो सुबह-सुबह आगमों एवं आगमतुल्य ग्रंथों का शुद्ध उच्चारणपूर्वक नियमित स्वाध्याय करते हैं, उनकी वाणी पवित्र हो जाती है। स्वाध्याय करने वाला इस जन्म में ही नहीं अग्रिम भव में भी आदेयवचन वाला होता है। उसकी बात को बड़े सम्मान के साथ सुना जाता है। स्वाध्याय विपुल कर्मनिर्जरा का माध्यम है। स्वाध्याय में तल्लीनता जब प्रकर्ष पर पहुंचती है तो साधक ध्यान की स्थिति में चला जाता है। साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा जी की स्वाध्यायविषयक एकाग्रता प्रशस्य है।
अनुप्रेक्षाः अर्थ की परिक्रमा
स्वाध्याय का चौथा प्रकार है अनुप्रेक्षा। अनुप्रेक्षा में अर्थ का अनुचिन्तन चलता है। किसी भी ग्रंथ का सृजन शब्दों से होता है। वे शब्द कितने सटीक हैं, इसका भी बहुत मूल्य है, लेकिन उससे भी ज्यादा मूल्य है शब्दों में निहित भावों का। अर्थ का सौष्ठव और भावों का गांभीर्य शब्दों को भी प्राणवान ूबना देता है। शाब्दिक परावर्तन के साथ-साथ यदि अर्थ की परिक्रमा भी चलती रहे तो वह भाव स्वाध्याय बन जाता है। साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा जी का स्वाध्याय प्रायः भाव स्वाध्याय होता है। आपको जो ग्रंथ कंठस्थ हैं उनका अर्थ भी विज्ञात है। आप बहुधा कहती हैं- अर्थ सहित स्वाध्याय करने से भीतर में आनंद का एक अलग ही रसायन पैदा होता है। साध्वीप्रमुखा श्री जी के सान्निध्य में सुबह के समय बहुधा किसी न किसी ग्रंथ का अर्थ चालू रहता है। तत्वसंबंधी चर्चाए भी चलती रहती हैं। ज्ञानचेतना के विकास एवं विस्तार का एक महत्वपूर्ण उपक्रम है अनुप्रेक्षा।
आगम साहित्य में अनेक ऐसे सूत्र हैं जिनकी अनुप्रेक्षा करने वाला अपने जीवन में बहुत बड़ा बदलाव ला सकता है। साध्वीप्रमुखा श्री जी अनेक सूक्तों की अनुप्रेक्षा करती रहती हैं। आपका एक प्रिय सूक्त है ‘मम लाभो त्ति पेहाए। जीवन में कोई भी प्रसंग आए, चाहे वह अनुकूल हो या प्रतिकूल, आपके मुख से यह सूत्र सहज ही उच्चरित हो जाता है। जीवन में घटित होने वाली हर घटना हमें लाभान्वित कर सकती है बशर्तें कि हमारी सोच सकारात्मक रहे। साध्वीप्रमुखा श्री जी की सकारात्मकता आदर्श है। वे स्वयं सम्यक् सोचती हैं और नकारात्मक सोचने वालों को भी संप्रेरित और संबोधित करती रहती हैं। ‘अनुप्रेक्षा’ स्वाध्याय से जुड़ी एक ऐसी दीपशिखा है, जो हमारी राहों में उजाला बिखेरती है। साध्वी प्रमुखा श्री जी ने अनुप्रेक्षा के प्रयोगों द्वारा अपने मार्ग को हमेशा प्रशस्त और आलोकमय बनाने का प्रयत्न किया है।
धर्मकथा : प्रभावना प्रवचन की
स्वाध्याय का पांचवां प्रकार है धर्मकथा। यह साधु के जीवन से जुड़ा कर्मनिर्जरा का एक विशिष्ट उपक्रम है। धर्मकथा का अर्थ है धर्म का उपदेश देना, प्रतिबोध देना। साध्वीप्रमुखा श्री जी के जीवन में धर्मकथा एवं धर्मोपदेश का श्रीगणेश पारमार्थिक शिक्षण संस्था में ही हो गया। आपने मुमुक्षु के रूप में पर्युषण के अवसर पर यात्राएं की। यात्राओं का अवसर प्राप्त हुआ। आपने उन यात्राओं के दौरान कितनों को प्रेरित किया, कितनों के जीवन में धर्म और अध्यात्म का आलोक बिखेरा। ऐसी भी मान्यता है कि कभी-कभी विशेष साधना के द्वारा भी उतनी निर्जरा नहीं हो सकती, जितनी निर्जरा प्रवचन प्रभावना करके की जा सकती है।
साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा जी को परमपूज्य आचार्यश्री महाश्रमणजी के प्रवचन से पूर्व महीनों तक उपदेश देने का अवसर प्राप्त हुआ। गुवाहाटी चतुर्मास के दौरान आपने चार महीनों तक उपदेश देने का दायित्व बखूबी निभाया। उसके बाद कोलकाता में दो माह तक तथा भीलवाड़ा चातुर्मास में चार महीनों तक उपदेश दिया। हैदराबाद चतुर्मास में कोरोना महामारी के दौरान पूज्यवर के निर्देश से रात्रि के समय दो माह तक कर्मवाद और व्यक्तित्व विकास पर आपके ऑनलाइन वक्तव्य हुए। चतुर्मास हो या शेषकाल आपके वक्तव्य होते रहते हैं। आपकी वाणी में ओज तथा भाषा में सहज सौष्ठव है। आप कठिन विषय को भी सरलता एवं सुगमता से प्रस्तुत करने का प्रयास करती हैं। फलस्वरूप आपकी बात लोगों के सीधी गले उतरती है। आपके वक्तव्यों में आगमों एवं निर्युक्ति, भाष्य आदि प्राचीन ग्रंथों के उद्धरणों की प्रचुरता रहती है। आप बहुत बार संस्कृत-श्लोकों एवं कथाओं के माध्यम से भी कथ्य को स्पष्ट करने का प्रयास करती हैं। इस प्रकार आपने अपने प्रवचनों, वक्तव्यों एवं बातचीत के माध्यम से लोगों को अध्यात्म के पथ पर गति करने की प्रेरणा दी है। साध्वीप्रमुखा के महनीय पद पर आसीन होने के बाद तो आपके उपपात में धर्मकथा के रूप में होने वाला यह स्वाध्याय तो मानो अहर्निश चलता रहता है। उसमें न समय की सीमा होती है न स्थान की प्रतिबद्धता।
स्वाध्याय के द्वारा व्यक्ति सबसे पहले अपनी आत्मा का हित साधता है। उसके भीतर करणीय और अकरणीय का विवेक जाग जाता है। साध्वीप्रमुखा श्री जी की साधना का एक मात्र ध्येय है आत्महित। आपकी हर प्रवृत्ति ‘अन्तट्ठियाएं’ सूत्र की परिक्रमा करती हुई परिलक्षित होती है। साध्वीप्रमुखा जी की विवेक चेतना हमारे लिए प्रेरणा है। आप अकरणीय को न करने की दिशा में जितनी जागरूक रहती हैं, करणीय की क्रियान्विति के प्रति भी उतनी ही सजग एवं सचेष्ट रहती हैं। स्वाध्याय से वैराग्य के संस्कार पुष्ट होते हैं। जीवन में अनासक्ति का विकास होता है। साध्वी प्रमुखाश्रीजी का वैराग्य विशिष्टता लिए हुए है। आपके व्यवहारों में सहज अनासक्ति का दर्शन होता है।
स्वाध्याय आभ्यंतर तप है। जो स्वाध्याय करता वह ज्ञान और तप दोनों की समन्वित अराधना करता है। साध्वीप्रमुखा श्री जी के जीवन में चलने वाला स्वाध्याय का यह तपोयोग दूसरों के लिए भी प्रेरणा-पथ बने इसी अभिकांक्षा के साथ शतशः प्रणतियां।