शोभामय विकास यात्रा के शुभ सोपान

शोभामय विकास यात्रा के शुभ सोपान

विकास की यात्रा में सतत गतिशील विराट् व्यक्तित्व के महिमामंडित पगथिए मार्गदर्शक बनते हैं, अनुरागियों एवं अनुगामियों के लिए। आचार्यप्रवर ने कुछ दिन पूर्व साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभाजी की सेवा के विषय में 'शोभामय' विशेषण का प्रयोग किया। आपके जीवन को किसी भी कोण से देखें तो वह शोभामय प्रतीत होता है। आपके जीवन की साधना, आराधना एवं शासना शुभंकर एवं क्षेमंकर बनी हुई है। ये सद्गुण आपके गौरव को शतगुणित कर रहे हैं। शोभामय विकास का प्रथम सोपान है- शोभामय आराधना ।
1. शोभामय आराधना-
साध्वीप्रमुखाश्री जी ने आचार्य तुलसी, आचार्य महाप्रज्ञ और आचार्य महाश्रमण- इन तीनों गुरुओं की शुभदृष्टि की सर्वतोभावेन समर्पण के साथ आराधना की। न कभी आज्ञा में अपील की, न ही समर्पण में सवाल किया। 'आज्ञा गुरुणां ह्यविचारणीया' इस सूक्त की निर्विकल्प साधना की। गुरुत्रय की समर्पण पूर्वक आराधना के कारण आप उनके वात्सल्य, कृपा एवं विश्वास से हमेशा अभिस्नात रही।
आपका समर्पण समणी दीक्षा की पूर्व भूमिका में स्पष्ट परिलक्षित होता है। जहां स्वयं मुमुक्षु बहनें एवं उनके पारिवारिक जन समण दीक्षा हेतु तैयार नहीं थे, वहां मुमुक्षु सविता ने सर्वात्मना समर्पण प्रस्तुत कर समणश्रेणी की प्रथम पंक्ति में दीक्षित होने का गौरव प्राप्त किया। विशिष्ट क्षमताओं को अंतर्गर्भित रखने वाला नन्हा सा बीज आत्म समर्पण के आधार पर वटवृक्ष का विशाल रूप धारण कर लेता है। उसी प्रकार मुमुक्षु सविता के रूप में किए गए आपके समर्पण ने आपको आज तेरापंथ की विशाल साध्वी समाज का शिरोमणि बना दिया।
राजस्थान में चंदेरी के उपनाम से विख्यात 'लाडनूं' शहर में आपका जन्म हुआ। कहा जाता है प्रतिभा परिवेश के बंधनों को भी लांघ देती है। आपने गाँव के अंग्रेजी विहीन उस परिवेश को लांघकर अपनी प्रतिभा से अंग्रेजी में लेखन और वक्तृत्व की बेजोड़ क्षमता हासिल की। आपने समय-समय पर देश-विदेश में होने वाले विविध सम्मेलनों में तेरापंथ का प्रतिनिधित्व कर गरिमामय प्रस्तुति दी। भले वह रोम एवं बारी (इटली) में पॉप पॉल के साथ कांफ्रेंस का प्रसंग हो या एलबाना फ्लोरेंस विश्वविद्यालय में उद्बोधन का अवसर हो । आपने आचार्य श्री महाप्रज्ञजी की अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकों के अंग्रेजी अनुवाद का कार्य परिसंपन्न कर अपने व्यक्तित्व को विशिष्ट पहचान दी।
आपने गुरुदृष्टि की अनवरत आराधना की है। 'इंगियागार संपन्ने' इस सूक्ति को जीवन में चरितार्थ किया। जो निर्देश प्राप्त हुआ उसका अक्षरशः पालन आपके जीवन का अटल ध्येय रहा। चाहे वह समणी दीक्षा का प्रसंग हो या श्रेणी आरोहण का, नियोजिका के दायित्व निर्वहन का कार्य हो या फिर संस्था के संरक्षण का कार्य हो, विदेश यात्रा का अवसर हो या फिर आगम कार्य का प्रसंग हो। 'एके साधे सब सधे'- इस उक्ति को आदर्श मानकर आपने गुरुदृष्टि को साधकर सर्वस्व साधने का सार्थक प्रयत्न किया है।
तुलसी-महाप्रज्ञ युग में आपको विकास के अनेक अवसर प्राप्त हुए। एक-एक सोपान पर आरोहण करते हुए अनवरत आगे बढ़ते रहे। आपने आचार्य महाप्रज्ञजी की विशेष कृपा प्राप्त की। आचार्य महाप्रज्ञजी का कृपापूर्ण मार्गदर्शन आपकी विकास यात्रा में प्रबल निमित्त बना। जैन दर्शन के अनुसार बहुत सारी बातें द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव सापेक्ष होती हैं। परंतु आचार्य महाप्रज्ञजी के प्रति आपका समर्पण सदा एकरूप रहा। सन् 1992 के दीक्षा महोत्सव में 20 दीक्षार्थी भाई बहनों के नामों की घोषणा के पश्चात् 21 वीं दीक्षा किसकी हो? यह दायित्व आचार्य महाप्रज्ञजी को सौंपा गया। मात्र एक सप्ताह पूर्व आपको श्रेणी आरोहण का आदेश प्राप्त हुआ। उस समय गुरूदेव तुलसी ने आपकी विदेश यात्रा में उपयोगिता का उल्लेख आचार्य महाप्रज्ञजी के सम्मुख किया तब उन्होंने फरमाया- "अठे भी उपयोगी बणसी"। ऐसा लगता है सिद्धपुरूष के वे सिद्ध वचन प्रतिपल सार्थक सिद्ध हो रहे हैं।
गुरुओं ने आपको जब जिस कार्य में नियोजित किया, आपने अपने श्रम, समर्पण, प्रतिभा, बुद्धि एवं विवेक से उन्हें शत-प्रतिशत क्रियान्वित करने का प्रयास किया। गुरुत्रय ने जितना विश्वास किया उससे सवाई पात्रता सिद्ध की। आपका जीवन निर्विकल्प समर्पण, अविचल श्रद्धा, कार्यदक्षता, संयमित जीवनशैली, प्रशासनिक क्षमता एवं विनम्रता आदि विशेषताओं का समवाय है। आचार्य महाप्रज्ञजी की जन्म शताब्दी के अवसर पर महाप्रज्ञ वाङ्गमय के महनीय कार्य के समायोजन- संपादन का मुख्य दायित्व आपको सौंपा गया। उस गुरुतर कार्य की परिसंपन्नता पर परमपूज्य आचार्य श्री महाश्रमणजी की प्रसन्नता ने पूरे वातावरण को उल्लासमय बना दिया। सारा कार्य सुव्यवस्थित देखकर स्वयं आचार्यप्रवर आश्वस्त थे। इस प्रकार आपके जीवन के अनेक प्रसंग हैं, जहां आपका समर्पण, आपकी आराधना शोभामय विकासयात्रा का शुभ सोपान बनी।
2. शोभामय साधना-
साध्वीप्रमुखाजी की शोभामय जीवन-यात्रा का मुख्य सोपान है- उनकी अनुत्तर साधना, चित्त को निर्मल बनाने वाली निस्पृह चेतना, मन को संतुलित रखने वाली मध्यस्थ मनोवृत्ति। 'समयं गोयम! मा पमायए' यह आगमसूक्त आपके जीवन का आदर्श वाक्य रहा है। कषायों का उपशमन एवं योगों की स्थिरता आपके अप्रमत्त जीवन का जीवंत उदाहरण है। आपका साधनामय जीवन प्रेरणा का प्रकाशपुंज है जो संपूर्ण साध्वीजगत को संप्रेरित, आलोकित करता रहता है। जागरण से लेकर शयन तक की पूरी दिनचर्या अप्रमत्तता से परिपूर्ण है। साढ़े तीन बजे द्रव्यनिद्रा से जागृत हो आप जप-ध्यान की साधना में तल्लीन हो जाती हैं। आप मंत्र साधना एवं ध्यान योग द्वारा कर्म दलिकों को प्रतनु करने की दिशा में अहर्निश प्रयत्नरत हैं।
संस्था के प्रारंभिक काल से ही जप-ध्यान एवं स्वाध्याय आपका नित्यक्रम रहा है। आज भी आपका स्वाध्याय घोष सुनकर हम छोटी साध्वियों की निद्रा छूमंतर हो जाती है। तप के द्वारा साधना की तेजस्विता में नया निखार आया है। संस्था में ही उपवास-पौषध आदि में आपकी विशेष रुचि थी। समणश्रेणी में प्रवेश करते ही आपकी साधना ने तीव्र गति से बल पकड़ा। श्रेणी की संयमित दिनचर्या का लाभ उठाकर काफी समय प्रयोगात्मक साधना में लगाया। कायोत्सर्ग प्रतिमा के प्रयोग ने आपके आध्यात्मिक व्यक्तित्व को और ऊर्जस्वल बनाया है। इसकी आप समय-समय पर प्रेरणा भी प्रदान करती थी। साधना के अनेक प्रयोग आपके जीवन में सुचारू रूप से चले और समय के साथ प्रवर्धमान भी बने। जैसे-
• अष्टमी, चतुर्दशी, तेरस को उपवास करना। धीरे-धीरे आप महिने में सात उपवास भी करने लगे। तुलसी जन्म शताब्दी एवं महाप्रज्ञ जन्म शताब्दी में सौ-सौ उपवास का संकल्प किया। प्रलम्ब यात्रा के बावजूद भी उस संकल्प को पूर्ण किया। कोरोना काल में प्रतिमाह एक तेले का अनुष्ठान किया। आपकी तप रुचि आपके मुखमंडल पर परिलक्षित होती है। साध्वियां अनेक बार अनुभव करती हैं कि तपस्या के दिन आपके चेहरे पर विशेष प्रसन्नता रहती है।
• रविवार को नमक परिहार का आपने वर्षों तक प्रयोग किया है।
• समण श्रेणी के लगभग प्रारंभिक छह वर्षों तक आपके चीनी एवं चीनी मिश्रित सभी द्रव्यों का वर्जन था। हम साध्वियों द्वारा पूछा गया- यह संकल्प क्यों? आपने फरमाया- नियोजिका होने के नाते विशिष्ट द्रव्यों के ग्रहण हेतु समणीजी का आग्रह रहता। मुझे यह इष्ट नहीं था। अतः मैंने त्याग को ही श्रेयस्कर माना। त्याग शब्द के समक्ष आग्रह स्वतः ही विलीन हो जाता है।
आपकी संतुलित जीवन शैली और मनःस्थिति संपूर्ण साध्वी समाज के लिए प्रेरणा स्त्रोत है। यह शोभामय विकास यात्रा का शुभंकर सोपान है।
3. शोभामय शासना-
शासना का अर्थ है नेतृत्व। यह वो मशाल है जो स्वयं को ज्योतिर्मय बनाती हुई दूसरों को भी प्रकाशित करती है। आपकी साधना की तेजस्विता के कारण शासना भी प्रकाशमयी बन गई है। साधनामार्ग में प्रवेश एवं प्रशासनिक व्यक्तित्व का प्रारंभ दोनों आपके जीवन में समानांतर रेखा की भांति चले हैं।
प्रशासनिक योग्यता का प्रारम्भिक सूत्र है- आत्मानुशासन। 'निज पर शासन-फिर अनुशासन' यह अनमोल वचन आपके जीवन में देखा जा सकता है। आप स्वयं अनुशासित हैं और अनुशासनमय वातावरण ही आपको प्रिय है। आपके अनुशासित रूप की मुमुक्षु बहनों एवं संस्था के संरक्षक वर्ग पर गहरी छाप थी। आपसे बहनें संकोच का अनुभव भी करती थी। बहनों में एक धारणा थी "एक नजर डाली, बरामदा खाली"। आपकी एक आंख में अनुशासन था तो दूसरी में वत्सलता। दूर से भीत होने वाला अगर एक बार आपकी सन्निधि मे आता तो वह आपका हो जाता।
समणश्रेणी में भी आपके अनुशासन के अमिट पदचिन्ह अंकित हैं। आचार्य श्री तुलसी ने आपकी प्रशासनिक योग्यता का अंकन कर आपको प्रथम समणी नियोजिका बनाया। वह छह वर्षीय कार्यकाल समणश्रेणी के विकास में मील का पत्थर साबित हुआ।
'सबका विकास-सबका विश्वास'- यह आपके चिंतन में अनवरत रहता था। समणश्रेणी तथा पारमार्थिक शिक्षण संस्था के संरक्षण एवं संवर्धन में आपका विशेष योगदान रहा है।
श्रेणी आरोहण के पश्चात् आपका प्रशासनिक व्यक्तित्व नए-नए आयाम छूता गया। अचार्य श्री महाप्रज्ञजी ने समणश्रेणी के रजत जयंती के शुभ अवसर पर आपको मुख्य नियोजिका के पद पर प्रतिष्ठित किया। आपने अपनी साधना के साथ-साथ समणश्रेणी और मुमुक्षु श्रेणी के विकास में भी अपने श्रम, शक्ति और समय का सम्यक् समायोजन किया।
आचार्य श्री महाश्रमण जी ने शासनमाता साध्वीप्रमुखा श्री कनकप्रभाजी के महाप्रयाण के दो माह पश्चात् आपश्री को नवम साध्वीप्रमुखा के रूप में मनोनीत किया। वर्तमान में आप साध्वी समाज की सारणा- वारणा के साथ प्रत्येक साध्वी की चित्त समाधि का ध्यान रखते हैं। आप साध्वी समाज की आचार व्यवस्था को मजबूत बनाने के साथ-साथ साध्वियों को संस्कृत-अध्ययन, महाप्रज्ञ श्रुताराधना, तत्वज्ञान का पाठ्यक्रम अथवा अन्य विकास योजना के साथ जुड़ने की बराबर प्रेरणा प्रदान करते रहते हैं।
वर्तमान में केवल साध्वी समाज ही नहीं अपितु श्रावक-श्राविका समाज भी आपकी कुशल अनुशासना में आनंद एवं तोष की अनुभूति कर रहा है। 103 डिग्री ज्वर की स्थिति में और शिरोवेदना का अनुभव करते हुए भी आप मुंबई में नंदनवन से पांच किमी. दूर महिला मंडल के अधिवेशन के दौरान कार्यक्रम में पधारे। यह आपकी वत्सलता का परिणाम है। पारिवारिक संभाल, घरों का स्पर्श आदि से भी आप श्रावक समाज की श्रद्धा को और सुदृढ़ बना रही हैं।
इस प्रकार आपकी शोभामय आराधना, शोभामय साधना एवं शोभामय शासना आपके संपूर्ण जीवन को शोभास्पद बना रही है। शोभमय विकास यात्रा के ये सोपान संपूर्ण संघ के लिए शुभंकर, शिवंकर व क्षेमंकर बने। आपकी शासना साध्वी समाज के लिए वरदायी बने, मंगलकामना।