अहिंसा और संयम युक्त साधन है शुद्ध: आचार्यश्री महाश्रमण
32 दिवस के अंतराल के पश्चात साध्वीप्रमुखाश्री पहुंची गुरुकुलवास में
संयम के महानायक आचार्य श्री महाश्रमणजी ने अमृतवाणी का रसास्वादन कराते हुए फरमाया कि संयम और तप में अध्यात्म का बहुत बड़ा सार समाया हुआ है। आगम में कहा गया कि संयम और तप से स्वयं को भावित करते हुए विहार करते रहें। हमारे जीवन में एक मार्ग भोग का है, इन्द्रिय विषयों के उपभोग का है और दूसरा मार्ग है- संयम का। एक अनुस्रोत का मार्ग है, तो दूसरा प्रतिस्रोत का मार्ग है। प्रवाह के साथ बहना सामान्य बात है पर स्रोत के प्रतिकूल चलना कठिन हो सकता है। संयम और तप का मार्ग प्रतिस्रोत का मार्ग है। अनुस्रोत संसार है, प्रतिस्रोत संसार को तरना है।
शास्त्र में कहा गया है पर श्रेष्ठ बात यह कि मैं अपनी आत्मा को दान्त बनाऊं, संयमित बनाऊं। हम अपने साध्य को प्राप्त करने का मनोभाव बनाते हैं। साध्य को पाने के लिए साधन की आवश्यकता होती है।
साध्य शुद्ध है तो साधन भी शुद्ध होना चाहिए। आत्मा का दमन करने के साधन बताए गए- संयम और तप। ये दोनों बड़े शुद्ध साधन हैं।
प्रश्न हो सकता है कि साध्य और साधन की शुद्धता की कसौटी क्या है ? जिस साध्य में अहिंसा और संयम है वह साध्य शुद्ध है, इसी प्रकार अहिंसा और संयम युक्त साधन भी शुद्ध हो सकता है। मोक्ष यदि साध्य है तो साधना में संयम-तप करें, अहिंसा का ध्यान रखें, ज्ञान, दर्शन, चारित्र में अभिवृद्धि करें। ये सब शुद्ध साधन हैं। यहां हिंसा को प्रश्रय नहीं है, असंयम का प्राधान्य नहीं है।
साध्य भौतिक भी हो सकता है, उसके लिए भी हम ज्यादा से ज्यादा अहिंसा का प्रयोग करें, जितना हो सके संयम रखें। जो जरूरी नहीं वह हिंसा, असंयम काम में न लें। राजा के तीन कर्तव्य होते हैं- सज्जन लोगों की रक्षा करना, असज्जन लोगों पर अनुशासन करना और जो आश्रित जनता है, उसका भरण-पोषण करना। इन कर्तव्यों में राजा भी अहिंसा और संयम का ध्यान रखे।
संयम और तप द्वारा अपनी आत्मा का अनुशासन करें। आत्मानुशासन धर्म के क्षेत्र में भी काम का है, तो राजनीति, समाज नीति और परिवार में भी काम का है। अपने आप पर हम अपना अनुशासन करें अन्यथा दूसरे हम पर अनुशासन करेगें। वह स्थिति न आये इसलिए हम संयम और तप के द्वारा अपनी आत्मा पर अपना अनुशासन करने का प्रयास करें।
आचार्य श्री तुलसी ने अणुव्रत आंदोलन में बताया- निज पर शासन, फिर अनुशासन। हम संयम और तप के द्वारा अपनी आत्मा पर अनुशासन करने का प्रयास यथोचित रखें।
आज साध्वीप्रमुखा जी 32 दिनों के अन्तराल बाद गुरुकुलवास में पधारी हैं। जो होता है अच्छे के लिए होता है। कहा गया है- हुआ और होगा कि जो वह सब भला नितान्त।
परम शांति के हेतु हैं ये दो चिन्तन कान्त।।
साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभाजी ने फरमाया कि चकोर पक्षी चन्द्रमा की बाट निहारता है, मयूर बादल की ओर देखता रहता है, चकवा पक्षी सूर्य की, योद्धा विजय की और हाथी विंध्याचल की प्रतीक्षा करता रहता है वैसे ही हम सब साध्वियां आचार्यप्रवर का स्मरण कर रहीं थीं।आज हमें अत्यधिक आनन्द की अनुभूति हो रही है। मेरे भीतर में संघर्ष चल रहे थे।
मेरे कान और मेरी आंखों में संघर्ष हो रहा था, कानों को तो पूज्य श्री के संवाद मिल रहे थे, पर आंखों को दर्शन नहीं मिल पा रहे थे। दूसरा संघर्ष था मन और पैरों का। मन कहता था आगे बढूं पर पैर तैयार नहीं थे। पर आज आचार्य प्रवर के दर्शन हो गए। पूना और औरंगाबाद के युवक प्रतिदिन हमारे विहार में अच्छी संख्या में साथ थे। युवक परिषद का सेवा का यह कार्य अपने आप में विलक्षण है।
साध्वीवर्या संबुद्घयशाजी ने कहा कि आज अत्यंत खुशी हो रही है कि साध्वीप्रमुखाश्री जी पुनः गुरुकुलवास पधार गई हैं, साध्वियों का ठिकाणा हरा भरा हो गया है।
मुख्यमुनि महावीरकुमार जी ने कहा गत दिनों के प्रसंग बताते हुए कहा कि आचार्य प्रवर की सन्निधि इतनी पवित्र है कि लोगों को बार-बार आपके दर्शन करने की भावना रहती है। गुरुदेव की यात्रा जैन शासन एवं तेरापंथ संघ की प्रभावना बढ़ाने वाली थी।
पूना सभाध्यक्ष महावीर कटारिया
एवं पूना समाज ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। विद्यालय प्रबंधन ने पूज्य प्रवर के स्वागत में अपने विचार रखे। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।