
धर्म है उत्कृष्ट मंगल
कायक्लेश क्यों?
शरीर के साथ हमारी दुश्मनी नहीं है जिससे द्वेष भाव से उसे उत्पीड़ित किया जाए। प्राणी का अपने शरीर के प्रति बहुत राग होता है। वह किञ्चित् भी कष्ट झेलना नहीं चाहता, यह शरीरासक्ति प्रगाढ़ होती जाती है। फलस्वरूप शारीरिक सहिष्णुता की शक्ति कमजोर हो जाती है। कायक्लेश तप का उद्देश्य है– देह-दुःख-तितिक्षा– शरीर में उत्पन्न कष्टों को सहन करने की शक्ति का विकास। इसका दूसरा उद्देश्य है सुखासक्ति का त्याग। व्यक्ति की भौतिक सुखों में आसक्ति होती है, वह आत्मिक सुखों की उपलब्धि में बहुत बड़ी बाधा है। एक साधु के लिए तो और भी ज्यादा आवश्यक है कि वह सुखासक्ति का त्याग करे, सुविधावादी मनोवृत्ति को छोड़े। जो साधु इस मनोवृत्ति का परित्याग नहीं करता है उसकी जो स्थिति बनती है, दशवैकालिक सूत्र की व्याख्या में उसका सुन्दर चित्रण किया गया है। वह इस प्रकार है-
एक वृद्ध पुरुष पुत्रसहित प्रवर्जित हुआ। चेला वृद्ध साधु को अतीव प्रिय था। एक बार दुःख प्रकट करते हुए वह कहने लगा- 'बिना जूते के चला नहीं जाता' अनुकम्पावश वृद्ध ने उसे जूतों की छूट दी। तब चेला बोला 'ऊपर का तला ठण्ड से फटता है!' वृद्ध ने मोजे करा दिए। तब कहने लगा– 'सिर अत्यन्त जलने लगता है।' वृद्ध ने सिर ढकने के वस्त्र की आज्ञा दी। तब बोला 'भिक्षा के लिए नहीं घूमा जाता।' वृद्ध ने वहीं उसे भोजन लाकर देना शुरू कर दिया। फिर बोला– 'भूमि पर नहीं सोया जाता!' वृद्ध ने बिछौने की आज्ञा दी। फिर बोला 'लोच करना नहीं बनता।' वृद्ध ने क्षुर को काम में लेने की आज्ञा दी। काल बीतने पर युवा साधु बोला- 'मैं बिना स्त्री के नहीं रह सकता' वृद्ध ने यह जानकर कि यह शठ है और अयोग्य है, उसे अपने आश्रम से दूर कर दिया।
कायक्लेश तप के अभाव में यह स्थिति बनती है। इसका तीसरा उद्देश्य है– शरीर-सिद्धि। शरीर को साधना के अनुकूल बनाना।
दशवैकालिक सूत्र के तीसरे अध्ययन का श्लोक कायक्लेश तप की दृष्टि से मननीय है–
आयावयंति गिम्हेसु, हेमंतेसु अबाउडा।
वासासु पडिसंलीणा, संजया सुसमाहिया।।
संयत और सुसमाहित मुनि गर्मी में आतापना लेते हैं, सर्दी में अनावृत शरीर रहकर ठंड को सहते हैं, वर्षा ऋतु में प्रतिसंलीन– गुप्त होकर रहते हैं।
कायक्लेश तप के अनेक प्रकार हैं-
१. स्थान– खड़े-खड़े कायोत्सर्ग, ध्यान आदि करना।
२. आसन– वीरासन, उत्कटुकासन, वज्रासन, पद्मासन आदि आसनों का अभ्यास करना। स्थिरतापूर्वक लम्बे समय तक एक आसनममुद्रा में रहना।
३. शयन– एक पार्श्व में लेटकर कायोत्सर्ग करना। अधोमुख, उत्तानमुख लेटकर कायोत्सर्ग करना। एक ही मुद्रा में स्थिरतापूर्वक लेटे रहकर कायोत्सर्ग करना।
४. आतापना– ऊर्ध्वबाहु होकर खड़े-खड़े या बैठे-बैठे सूर्य के सामने स्थिर होकर आतापना लेना।
५. अप्रावरण– शीतकाल में निर्वस्त्र रहकर अथवा अल्पवस्त्र रखकर सर्दी सहन करना।
६. शरीर-परिकर्म-परित्याग– मर्दन, स्नान, विभूषा आदि का वर्जन करना, शरीर की साज-सज्जा न करना। शरीर में उत्पन्न कष्ट को सहन करना, चिकित्सा का वर्जन करना।
इस तरह कायक्लेश के विभिन्न प्रकार हैं। इस तप के द्वारा कायसिद्धि प्राप्त करना साधक का लक्ष्य होना चाहिए।
कायक्लेश का लाभ
खुहं पिवासं दुस्सेज्जं सीउण्हं अरई भयं।
अहियासे अव्वहिओ देहे दुक्खं महाफलं।।
साधक भूख, प्यास, दुःशय्या (विषमभूमि पर सोना) शीत, उष्ण, अरति और भय को प्रसन्न मन से सहन करे, क्योंकि देह में उत्पन्न कष्ट को सहन करना (निर्जरा अथवा मोक्ष) का हेतु होता है।