दिव्य ऋद्धियों के स्वामी : आचार्यश्री महाश्रमण जी

दिव्य ऋद्धियों के स्वामी : आचार्यश्री महाश्रमण जी

आचार्य की तीन प्रकार की ऋद्धियों के दो विकल्प बताएं हैं। ऋद्धि का अर्थ होता है - ऐश्वर्य अथवा वैभव सम्पदा। प्रस्तुत सूत्र में वर्णित इन छह ऋद्धियों की अपेक्षा से युगप्रधान आचार्य श्री महाश्रमणजी के जीवन को देखा जाए तो इन ऋद्धियों की ऊंचाई और गहराई की असीमता का वर्णन करना कठिन होता है।
1. आचार्य की पहली ऋद्धि है - ज्ञान ऋद्धि। आचार्य श्री के ज्ञान की सूक्ष्मता और विराटता का आभास उनकी ज्ञानाराधना को देख कर लगता है। सूत्रों का कोई विषय हो या सूत्रों के अर्थों का अथवा किसी व्यवहारिक प्रश्न का, आचार्य प्रवर उनकी व्याख्या इतनी सटीक करते हैं कि श्रोता अथवा पाठक की जिज्ञासा सहज ही समाहित हो जाती है। ज्ञान की इस ऋद्धि से वे अपनी शिष्यों की ज्ञान चेतना को जागृत रखते हैं।
2. दूसरी ऋद्धि है - दर्शन ऋद्धि। ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य देव की श्रद्धा मानो वज्र की बनी है। बाल्यावस्था में ही उन्होंने सिद्ध कर दिया था कि भले ही परिस्थितियों का कितना ही आरोह-अवरोह आए सम्यक्त्व को कोई आंच नहीं आई। इस ऋद्धि से वे अपने शिष्यों की श्रद्धा को सुदृढ़ रखते हैं।
3. तीसरी ऋद्धि है - चारित्र ऋद्धि। आचार्य प्रवर की चारित्र ऋद्धि सिद्ध शिला के श्वेत स्फटिक की भाँति पवित्रतम है। महाव्रत, समिति, गुप्ति आदि आगमिक आचार हो या संघीय मर्यादाएँ इनका पालन आप आहिताग्नि कृतांजलि की तरह करते हैं। चारित्र ऋद्धि के इस वज्र कवच में प्रमाद का एक नन्हा सा झोंका भी क्यों प्रवेश कर जाए। इस आत्म ऋद्धि के पुण्य प्रभाव से आप धर्म संघ में चारित्रिक उज्ज्वलता को बनाए हुए हैं।
4. चौथी ऋद्धि है - सचित्त ऋद्धि। यह सुयोग्य शिष्यों की ऋद्धि है। न केवल साधु-साध्वी और समण श्रेणी के सदस्य बल्कि श्रावक-श्राविकाओं की एक समृद्ध संख्या भी आपके हर इंगित को सहज रूप से सतत् शिरोधार्य करने को सदा तत्पर रहते हैं। अपनी
इस सम्पदा से आप भैक्षव शासन का दिन दूना-रात चौगुना विकास कर रहें हैं।
5. पाँचवी ऋद्धि है - अचित्त ऋद्धि। यह बाह्य व्यक्तित्व की ऋद्धि है। व्यवहार जगत में बाह्य व्यक्तित्व का भी अपना महत्त्व होता है।
आचार्यश्री की यह ऋद्धि ऐसी है जैसे असंख्य तारों के बीच चन्द्रमा शोभायमान हो रहा हो। अपने गौर वर्ण, सौम्य मृदु मुस्कान युक्त आकर्षक, स्वस्थ व्यक्तित्व से आप जन-जन के आकर्षण के केन्द्र हैं। इस ऋद्धि से आप अपनी में शरण आने वाले के संताप को क्षण
मात्र में तीर्थ के समान शीतल कर देते हैं।
6. छठी ऋद्धि है - मिश्र ऋद्धि। यह शिष्य सम्पदा की बाह्य और आभ्यन्तर व्यक्तित्व की ऋद्धि है। जैसे ऐसी मान्यता है कि चन्दन के वृक्ष के पास रहने वाले सामान्य वृक्षों में भी चन्दन के कुछेक गुण आ जाते हैं।
वैसे ही गुरु के प्रताप से शिष्यों की आध्यात्मिक एवं व्यवहारिक उच्चता का मिश्र रूप यह ऋद्धि है। ये ऋद्धियां तो मात्र उल्लेख रूप में ही हैं। अनेक बार भगवान स्वरूप आचार्य प्रवर की दिव्य ऋद्धियों की अनुभूति भक्तगण अनुभव करते रहते हैं। उनकी प्रस्तुति तो अनेक ग्रंथों से भी संभव नहीं लग रही। पूज्य प्रवर के 50वें दीक्षा कल्याणक वर्ष के अवसर पर अनंत - अनंत वंदन अभिवंदन।
ये ऋद्धियां उत्तरोत्तर विकास के आसमान छूती रहे। गुरुदेव के पावन सान्निध्य में हमारी साधना और संघ सेवा चलती रहे- ऐसे आशीर्वाद की याचना।