व्यक्तित्व की रेखाओं में आचार्य महाश्रमण
शब्द परिमित हैं, व्यक्तित्व की रेखाएं अपरिमित। परिमित से अपरिमित को बांधने का प्रयास गागर में सागर भरने जैसा है। परन्तु जब यथार्थता अभिव्यक्ति पाने के लिए ललचाती है तब व्यक्ति ऐसा असंभाव्य प्रयास भी कर बैठता है। आचार्य महाश्रमण का व्यक्तित्व कुछेक रेखाओं से निर्मित है पर वे रेखाएं अत्यंत स्फुट हैं। समस्त रेखाएं यथार्थता की परिक्रमा किये चलती हैं। अतः उन्हें श्लाघा के रंग से रंगने की आवश्यकता नहीं रहती। वास्तव में वे जो हैं वे हैं, इससे अतिरिक्त और कुछ नहीं। उनके व्यक्तित्व का लेखा-जोखा अनुभूति में है शब्दों में नहीं। अनुभूति चेतन है और शब्द जड़ फिर भी दृश्य लोक शब्दों के सहारे ही समझता है। अतः हम चेतन को जड़ माध्यम से अभिव्यक्त करने का दुःसाहस करते है। आचार्य महाश्रमण का व्यक्तित्व चित्रण भी कुछ ऐसा ही लघु प्रयास है। आचार्य महाश्रमण का बाह्य और आन्तरिक दोनों ही प्रकार का व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक है। गौर वर्ण, मझला कद, प्रशस्त व भव्य ललाट, तीखी और उठी हुई नासिका, गहराई तक झांकते तेजोदिप्त नयन, अद्भुत कान, गीर्वाणग्रीवा, भरा हुआ मनमोहक मुखमण्डल और भव्य संस्थान- यह है आपका प्रथम दर्शन से ही आकृष्ट करने वाला दृश्य व्यक्तित्व।
आचार्य महाश्रमण का आन्तरिक व्यक्तित्व इससे भी कहीं बढ़कर है। एक धर्म सम्प्रदाय के आचार्य होते हुए भी सभी सम्प्रदायों की विशेषताओं का आदर करते हैं और सहिष्णुता के आधार पर उन सब में नैकट्य स्थापित करते हैं। आप मानव में नैतिकता, सद्भावना और नशामुक्ति के संस्कारों को जगाकर भूमण्डल पर मानवता की प्रतिष्ठा में अहर्निश लगे हैं। अथक परिश्रम आपके मानस को अपार तृप्ति प्रदान करता है। प्रसन्न मन, सहज ऋजुता, सबके प्रति समभाव, आत्मीयता की तीव्र अनुभूति, विशाल चिन्तन, विरोधी के प्रति अनुद्विग्नता, आचारनिष्ठ के प्रति स्नेहसिक्त, परोपकार-परायण, अपराजेय साहस, चिन्तन की गहराई, सामने वाले के मनोभावों को सहजता से ही ताड़ लेने का सामर्थ्य और अयाचित वात्सल्य उड़ेलने की उन्नतवृत्ति - यह है आपका महत्वशील अदृश्य व्यक्तित्व।
आपके व्यक्तित्व की स्फुट रेखाओं से आपको कुछ जानने का, समझने का प्रयास किया जा सकता है : आत्मवान् व्यक्तित्व- जीवन के दो पक्ष हैं- एक मुख्य और दूसरा गौण। मुख्य वह है जो किसी भी स्थिति में छोड़ा न जा सके। गौण कार्य वह है जिसे किया हो या न किया हो फिर भी चल सकता है। आचार्य महाश्रमण एक अध्यात्म पुरुष हैं और आपका मुख्य कार्य है अपनी आत्मा में स्थित रहना। आपका हर कार्य, हर लक्ष्य का केन्द्र आत्मा रहता है। वास्तव में आप एक आत्मवान् व्यक्तित्व के धनी हैं। आप आत्मवान् भी हैं और विद्वान भी। विद्वान को गंभीर भी होना चाहिए, आप सागर से भी ज्यादा गंभीर हैं। न जाने कितनी-कितनी अनुकूल या प्रतिकूल बातों को आप पचा जाते हैं, भूला देते हैं। कई आवश्यक तथ्य आप चिरकाल तक याद रखते हैं पर इसका प्रतिभास किसी को नहीं होने देते।
अप्रमादी व्यक्तित्व - आचार्य महाश्रमण का जीवन अप्रमाद चेतना की जीवंत मिसाल है। आपका पूरा जीवन अप्रमत्तता की अवस्था में रहा है। हर छोटी से छोटी बात, हर छोटे से छोटे कार्य में आप हमेशा पूर्ण सजग और सावधान रहते हैं। भगवान महावीर की जागरूकता के सूत्र को आपने आत्मसात् कर लिया है। इसीलिए आपका आहार संयम वाणी संयम, निद्रा संयम और उपकरण संयम इतना प्रशस्त है कि देवता भी प्रणत हो जाए। आपका जीवन भाव साधुता को पूर्ण चरितार्थ करने वाला है। कहा गया है-
क्षान्त्यादि गुण संपन्नो, मैत्र्यादि गुण भूषितः।
अप्रमादी सदाचारी, भाव साधुः प्रकीर्तित:।।
आचार्य महाश्रमण को हम चाहे किसी भी कोण से समझें उनमें भाव साधुता की झलक स्पष्ट मिलती है। यह भाव साधुता आत्म स्मृति या अप्रमादी व्यक्तित्व का ही दिग्दर्शन है। आत्म स्मृति जागरूकता, सजगता और सावधानी की जो बात है, वास्तव में साधना का महान सूत्र है, वह सूत्र है - अप्रमाद। अप्रमाद एक सशक्त साधन है आत्म स्मृति का।
आत्मानुशासित व्यक्तित्व - प्रत्येक जीवन का उद्धेश्य है लक्षित मंजिल को प्राप्त करना। लक्ष्य प्राप्ति की सफलता के लिए अनुशासन जरूरी है। अनुशासन यानि नियंत्रण। गुरु का अनुशासन बहुत महत्वपूर्ण है। वह हितानुशासन है। गुरु के हितप्रद अनुशासन को झेलने वाला, शिरोधार्य करने वाला, उसकी आराधना करने वाला, पनाह में रहने वाला अपनी चाह के अनुरूप राह पा लेता है। एक विचारक ने लिखा है-
Discipline is the refining fire by which talent becomes ability.
अर्थात् अनुशासन परिष्कार की अग्नि है जिसमें प्रतिभा योग्यता बन जाती है।
आचार्य महाश्रमण का व्यक्तित्व आत्मानुशासित है। आप एक कुशल अुनशास्ता हैं, औरों पर अनुशासन भी करते हैं पर आप पहले स्वयं आत्मानुशासित है। आपका अपने शरीर, इन्द्रियों, वाणी और मन पर गजब का अनुशासन है। अनुशासन वहां अपेक्षित होता है जहां संवेगों पर नियंत्रण न हो, कषाय की प्रबलता हो और इच्छाएं असीम हो। साधना की सफलता एवं जीवन का आनन्द तो आत्मानुशासन में ही सन्निहित है। जो अपने पर अनुशासन कर सकता है वह औरों पर अनुशासन करने के लिए योग्य बन सकता है।
समर्पणशील व्यक्तित्व - समर्पण एक सहज सर्वोत्तम मानवीय गुण है। किसी पर अटूट विश्वास करके सर्वस्व अर्पण करना ही समर्पण है। समर्पण में सहजता और स्वाभाविकता होती है। समर्पण व्यक्तित्व को नई ऊंचाइयां प्रदान करता है, समर्पण प्रत्येक क्षेत्र में तुलनात्मक रूप से अधिक सफल बनाता है।
आचार्य महाश्रमण श्रद्धा और समर्पण की अनुपम हस्ती है। आपका सम्पूर्ण जीवन समर्पण के धरातल पर टिका है। आचार्य तुलसी ने कहा है-
''अपने प्रति गुरु के प्रति, और लक्ष्य के हेतु।
सहज समर्पण भाव है, स्वयं सिद्धि का सेतु।।''
आपका समर्पण अपनी आत्मा के प्रति जितना है उतना ही अपने गुरु और लक्ष्य के प्रति भी है। आपका अपने आराध्य के प्रति समर्पण दूध और पानी की एकात्मकता की तरह है।
समर्पण स्वयं को स्वयं से परिचित कराता है, आत्म-मूल्यांकन का अवसर प्रदान करता है। धैर्य क्षमता में अभिवृद्धि कर अनुभवों को परिपक्व करता है। गुरु कृपा की अगम्य अचिन्त्य शक्ति का अनुभव हृदय की आस्थाशील रेखाओं में देखा जा सकता है।
श्रमप्रधान व्यक्तित्व -
आचार्य महाश्रमण का पुरूषार्थ पर अटूट विश्वास है। श्रम आपके जीवन का क्रम है। भाग्यवाद की दुहाई देने वालों की अकर्मण्यता पर आप हंसते हैं और पुरुषार्थवाद की कठोरता पर फलदायी छाया में पलने वाले को आप आशा भरी दृष्टि से देखते हैं। जहां राह है वहां तो हर कोई आ - जा सकते हैं पर जो नई राह ढूंढ निकाले और उसको साध्य से जोड़ दे वह पुरूषार्थी है। बिना राह जो चल सके, बिना आंख जो देख सके वह पुरुषार्थी है। श्रम पुरूषार्थ का प्रतीक है। दिन-रात व्यस्त रहना श्रम की पराकाष्ठा है। इस व्यस्तता में भी आनन्द का स्राव होता है तभी तो आप उसमें सदा संलग्न रहते हैं। आपके पुरुषार्थी व्यक्तित्व ने उन लोगों को जगाया है जो सुखवाद और सुविधावाद के आदी बन गए हैं तथा संबोध दिया है उन्हें जो जीवन के महत्वपूर्ण कार्यों को कल पर छोड़ देने की मानसिकता से घिरे हैं। जबकि जीवन का सच यही क्षण है। बीता हुआ कल और आने वाला कल तो सिर्फ समय की दो संज्ञाएं हैं।
जहां श्रम की चेतना नहीं होती वहां जीवन के छोटे-छोटे कार्य भी उत्तेजना जगाती है। श्रम ही उपासना है। श्रम ही सफलता की सीढ़ी है। भगवान महावीर ने भी कहा है- ‘शक्ति का प्रस्फोटन करने वाला ही मोक्ष का द्वार खोतला है।’ आत्मबल और पुरूषार्थ से ही कार्य सिद्धि प्राप्त होती है बाह्य उपकरणों से नहीं। अंतः करण की सच्ची लगन से किया गया पुरूषार्थ कभी विफल नहीं होता।पुरुषार्थ से ही आपके जीवन में प्रकाश और विकास का अभ्युदय हुआ है। जो संयम के प्रति जागरूक-समर्पित होता है, इन्द्रियों विषयों में अनाकृष्ट होता है और राग-द्वेष विजेता बनने का लक्ष्य सतत् सामने रखता है वही गौरवत्रयी का विसर्जन करता है। आप सदैव यही सोचते हैं कि पुरूषार्थ से समस्याओं के घेरे को चीरकर सहज ही बाहर निकला जा सकता है।
पुरुषार्थ का सम्यक् नियोजन, जीवन की हर समस्या संकुल अंधेरी राह में उजाला करने वाला है। पुरूषार्थ हर कांटे को फूल और हर कठिनतम शिलाखण्ड को मोम बना सदाबहार कलाकृतियां उकेर देता है। पुरुषार्थ ही अभाव की आग में झुलसते रेगिस्तान को नंदनवन में परिवर्तित कर देता है। आप युग संत हैं इसलिए नहीं कि आप महाव्रतों की साधना करते हैं या आपके लाखों अनुयायी हैं या आप तेरापंथ संगठन के एक मात्र नियंता हैं बल्कि इसलिए कि आप युग की समस्याओं को युग के नेत्रों से देखते हैं और उसका समाधान भी युग के साधनों में ही देने का प्रयास करते हैं। वाणी और कर्म में अविपर्यास, श्रम की अविकलता स्नेह और वात्सल्य की अकृत्रिमता, वाणी में मितभाषिता, आचार के प्रति प्रेम, अनाचार के प्रति कठोरता, दैहिक आवश्यकताओं के प्रति उदासीनता, ध्येय के प्रति जागरूकता, रहन-सहन में कलात्मकता, समय को सार्थक बनाने की उद्योगपरकता-यह है एक रेखाचित्र आचार्य महाश्रमण का। ऐसे विरल और विराट व्यक्तित्व के संयम जीवन के 50वर्ष की सम्पन्नता पर नमन-नमन-नमन।