संवाद भगवान से...
आचार्य प्रवर के दीक्षा कल्याण वर्ष की सम्पन्नता पर चरित्रात्माओं द्वारा अलग अलग रूपों में आचार्यश्री की अभ्यर्थना की गई। स्वयं आचार्य प्रवर के साथ संवाद की नई विधा के माध्यम से साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभाजी, मुख्यमुनि महावीरकुमारजी एवं साध्वीवर्या संबुद्धयशा जी ने अपने प्रश्नों के उत्तर प्राप्त किए, जो जन-जन की आस्था को पुष्ट करने वाले एवं प्रेरणा देने वाले थे। प्रस्तुत है आचार्य श्री महाश्रमण जी के साथ धर्मसंघ के पदस्थ चारित्रात्माओं का संवाद - संवाद भगवान से :
साध्वीप्रमुखाश्री- आपने जब दीक्षा ली, आप लगभग बारह वर्ष के थे। दीक्षा से पूर्व मुनिश्री सुमेरमलजी स्वामी ने आपको कहा था- मोहन! अब निर्णय करो कि तुम्हें कौनसे मार्ग पर जाना है? त्याग के मार्ग पर जाना है या भोग के मार्ग पर जाना है? आपने उस समय अपने जीवन के प्रॉफिट और लॉस के बारे में चिंतन किया कि मैं किस रास्ते पर जाऊं जिससे मुझे प्रॉफिट होगा, किस रास्ते पर मेरा लॉस न हो। यह विवेक शक्ति आप में कैसे जागृत हुई?
आचार्यप्रवर- सोचने की शक्ति के बारे में जो जिज्ञासा प्रस्तुत की है, थोड़ा तो मेरे लिए भी आश्चर्य का विषय है कि मैं बारह वर्ष का भी उस समय नहीं था। तो भी मैंने एक सिस्टेमेटिक ढंग से चिन्तन किया, क्या लाभ क्या हानि? मैंने कालूगणी की माला पहले फेर ली थी, कालूगणी की कृपा से हो सकता है ऐसा चिंतन हुआ। कालूगणी की तिथि, छठ का दिन, उनका माला जप, फिर चिंतन में बैठा। साधु बनूं तो क्यों बनूं, नहीं बनूं तो क्यों नहीं बनूं। इन सारे बिंदुओं का चिंतन किया तब मुझे लगा कि साधु बनना ही ज्यादा श्रेयस्कर है। इतनी चिंतन की क्षमता कैसे जागी? यह क्षयोपशम तो हो ही सकता है, बाकी कोई दिव्य सहयोग मिला हो तो केवली जानें। कुछ भी हो, मैं सोचता हूं मैंने चिंतन बहुत बढ़िया किया और निर्णय भी कर लिया और इतना बड़ा मेरा सौभाग्य था कि यह महान पथ मुझे प्राप्त हो गया।
साध्वीप्रमुखाश्री- आचार्यवर मैंने आपको मुनि अवस्था में देखा है। गुरुदेव श्री तुलसी के सान्निध्य में जब बड़े-बड़े कार्यक्रम होते थे। कभी पट्टोत्सव मनाया जाता, कभी जन्मोत्सव मनाया जाता और उस समय आप कार्यक्रम में पधारते, गुरुदेव के पट्ट के पीछे बैठ जाते थे। वज्रासन मुद्रा, आंखे बन्द और लम्बे समय तक आप ध्यान करते रहते थे। मेरे मन में यह जिज्ञासा है आचार्यवर! आपने उस समय में इतना ध्यान किया था, क्या आपको अनुभव होता है कि हमारे साधु-साध्वियों को ध्यान का प्रयोग करना चाहिये, जिनसे उनका व्यक्तित्व तेजस्वी बन सके?
आचार्यप्रवर- दीक्षा लेने के बाद प्रारंभ के वर्षों में भी मैं ध्यान का प्रयोग करता था। प्रवचन के समय या रात्रि में प्रतिक्रमण के बाद ध्यान का प्रयोग किया करता था। मेरी ध्यान में अच्छी निष्ठा थी। उस वक्त समय निकालना भी आसान होता था। संभावित लगता
है कि मेरे पिछले जन्मों में साधना की हुई थी वो संस्कार जागे थे। ध्यान अच्छा है, आगम स्वाध्याय को भी मैं महत्व देता हूं। ध्यान एक ऐसी चीज है, जिसे हम अनेक कार्यों के साथ जोड़ सकते हैं।
ऐसे ही बैठे हैं तो थोड़ी चंचलता को कम कर दो, ध्यान का कुछ प्रयोग कर लो। विहार के समय जो टाइम लगना है, उसका ध्यान के रूप में प्रयोग करलो, सिर्फ नीचे देखें, इधर-उधर न देखें। आहार करते समय भी ध्यान का आंशिक प्रयोग किया जा सकता है। प्रेक्षाध्यान कल्याण वर्ष आने वाला है। उस वर्ष के दौरान चतुर्मास में भी मुख्य प्रवचन कार्यक्रम में ध्यान का प्रयोग कराएं ऐसा चिंतन किया है।
साध्वीप्रमुखाश्री- गुरुदेव! आपने मुनि सुमेरमलजी स्वामी से दीक्षा ली और उसके बाद मुनिश्री ने आपको गुरुदेव के चरणों में समर्पित कर दिया। उसके बाद कभी आप गुरुकुलवास में रहे, कभी आप बहिर्विहार में रहे। मेरे मन में यह जिज्ञासा है कि यह व्यवस्था गुरुदेव श्री तुलसी आपको देते थे अथवा कभी आपने कोई इच्छा भी जाहिर की कि मैं बहिर्विहार में जाना चाहता हूं या गुरुकुलवास में रहना चाहता हूं?
आचार्यप्रवर - संभवतः मेरा एक सिद्धांत दिमाग में रहा कि गुरु जहां रखे वहां रहना। गुरु जो फरमा दे, राज में रखें या न्यारा में भेजें, हम तैयार हैं। किसके साथ भेजें? जहां आपकी मर्जी हो उनके साथ भेजो। मेरी कोई इच्छा नहीं कि कहां रहना, जहां गुरु रखे वहां रहना। अपना कोई आग्रह नहीं। मैने कुछ भी निवेदन नहीं किया। गुरु ने स्वयं फरमाया कि अब तुम यहां रहो। मेरा एक तरह से समर्पण का भाव रहता, आग्रह तो दूर अर्ज भी प्राय: नहीं करता।
साध्वीप्रमुखाश्री- भन्ते! कभी आप जीवन के संस्मरण सुनाते हैं। कई संस्मरण ऐसे हैं कि आचार्य श्री तुलसी के साथ हुए। आचार्यश्री वहां कहते थे - मुनि मुदित आओ तब अपनी डायरी साथ लेकर आया करो। गुरुदेव तुलसी का आप पर बहुत अनुग्रह रहा। मेरी आपसे जिज्ञासा है कि आप पर इस अनुग्रह का राज क्या है?
आचार्यप्रवर- गुरुदेव तुलसी का शुरू से ही मुझ पर अनुग्रह था। कुछ तो अपना भाग्य होता है, कहीं पूर्व जन्म के आपस के संस्कार होते हैं। आचार्य श्री तुलसी एक चिन्तनशील, कुछ भविष्य दृष्टा, संघ की दृष्टि से भविष्य का चिन्तन रखने वाले थे। कईयों पर उन्होंने ध्यान दिया होगा, उनके मन में मुदित पर भी ध्यान गया कि ये बच्चा भी आगे संघ का काम संभाल सकता है। कुछ मेरा व्यवहार और देखकर उनको लगा हो कि टाबर अच्छा है। वो मेरे लिए समय लगाते, पश्चिम रात्रि में पता नहीं कितने घंटे उनके जीवन के मुझे सान्निध्य मिला। कितने ग्रंथों का उनके चरणों में बैठकर मैं पाठ करता, वे गलती सुधारते, अर्थ बताते। कभी व्यक्तिगत बातचीत मैं कर लेता। जब छोटा बच्चा था तो उलाहना डांट भी करते थे, थोड़ा बड़ा होने पर स्नेह, वात्सल्य, थोड़ा सम्मान देना शुरू कर दिया। मेरा उपयोग कर संघीय काम में जोड़ने लगे, मीटिंग में बुलाते। मुझे काम करने का बहुत अवकाश दिया। अंतर्मन से मानों आगे पंहुचाने, संघ के शिखर तक पहुंचाने की दृष्टि से उन्होंने ध्यान दिया, चिन्तन किया। बचपन से ही गुरुदेव तुलसी का मुझ पर कृपा भाव था। कुछ मेरा पुण्य-भाग्य मानलो, उनका भविष्य का चिंतन मानलो, उनकी पारखी नजर मानलो, सब मिलकर हुआ।
साध्वीप्रमुखाश्री- भन्ते! आपने गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी के साथ यात्राएं की। आपश्री ने परम पूज्य महाप्रज्ञजी के साथ में यात्राऐं की। आचार्य बनने के बाद स्वतंत्र रूप में अहिंसा यात्रा की। अहिंसा यात्रा से लोगों को लाभ भी हुआ। मेरी जिज्ञासा है कि आपकी इस बारे में क्या अनुभूति रही?
आचार्यप्रवर- यात्रा करने में सात वेदनीय का भी योग चाहिये। शारीरिक अनुकूलता चाहिये तो व्यवस्था की भी अनुकूलता चाहिये, भाग्य की भी अनुकूलता हो तब यात्राऐं हो सकती है। यात्रा करने में लाभ है, बाकी तो समय-समय की बात है। उम्र की, स्वास्थ्य की अनुकूलता हो तब तक यात्रा कर लेनी चाहिए। यात्रा करने से हमारे श्रावक समाज की संभाल अच्छी हो जाती है। एक बार आने से समाज में नया उन्मेष आ सकता है। अनुकूलता हो तो यात्राएं करनी भी चाहिये, खासकर जो मुखिया हैं उन्हें यात्रा करनी चाहिए। यात्रा से जनोपकार भी हो सकता है।