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न्याय निष्पक्ष एवं विवेकपूर्ण होना चाहिए : आचार्यश्री महाश्रमण
भीलवाड़ा, 25 सितंबर, 2021
संयमदान प्रदाता आचार्यश्री महाश्रमण जी ने प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि ठाणं आगम में शास्त्रकार ने दान के दस प्रकार बताए हैं। भारतीय संस्कृति में दान की परंपरा बहुत प्राचीन है। दान का अर्थ है, देना। इस देने की पृष्ठभूमि में अनेक प्रेरणा काम करती रही है। वे प्रेरणाएँ एक जैसी नहीं हैं। कुछ व्यक्ति दीन-दया में देख द्रवित होकर, कुछ लोग राष्ट्र की सुरक्षा के लिए, महामारी-आपदा जैसी स्थिति आ जाए, कोई आदमी भय या मजबूरी में, कोई आदमी नाम-ख्याति कमाने के लिए दान दे सकता है। ठाणं के इस सूत्र-श्लोक में जो दान के दस प्रकार बताए हैं। दस दानों में पहला हैअनुकंपा दान। कोई कृपण, अनाथ, दरिद्र, रोगी व्यक्ति पर करुणा आने से दान देना। दूसरासंग्रह दान। सहायता करना, दान देना। तीसरा दान हैभय दान। किसी के भय से दान दे देना। चौथा हैकारुण्यक दान। कारुण्य यानी शोका प्रियजन की मृत्यु के निमित्त उसके कपड़े आदि का देना। एक लौकिक मान्यता यह रही है कि जो मृत आदमी के उपकरण होते हैं, वो अगर दान में दे दिए जाएँ तो मृत आत्मा आगे सुखी रहती है।
पाँचवाँलज्जा दान। लज्जावश दान देना। लोक-लज्जा के कारण दान देना। छठा हैगौरव दान। कोई नट मंडली या खेल तमाशे वाले को दान देना या शिलालेख पर नाम आएगा वो भावना से यश के लिए दान देना। सातवाँ हैअधर्म दान। हिंसा-चोरी आदि गलत कामों के लिए दान देना। अधर्म करने वाले लोगों को दान देना। आठवाँ हैधर्म दान। जो साधु है, तृण मणि-मुक्ता में सम रहने वाले हैं, ऐसे सुपात्र साधुओं को जो दान दिया जाता है, वह धर्म दान है। नौवाँ दान हैकृतमिती दान यानी उसने मेरा उपकार किया था, मेरा काम किया था। आज उसको जरूरत है, मैं उसका प्रत्युपकार करूँ। यह किए हुए को याद रखते हुए देना कृतमिती दान देता है। दसवाँ दान हैकरिष्यति दान। ये आदमी मेरे आगे काम आएगा, मैं पहले से कुछ उसकी सहायता करूँ। यह शास्त्र में दान के बारे में चर्चा आई है। ठाणं के अलावा परमपूज्य भिक्षु स्वामी का गीतदस दान की ढाल में दस दान की व्याख्या की गई है। वाचक प्रमुख उमास्वाति ने भी दान पर चर्चा की है। दान एक ऐसा विषय है, जो प्रसिद्ध भी है, बहुत प्रचलित भी है और विभिन्न संदर्भों-भावनाओं से दान दिया जा सकता है। सूक्ति मुक्तावली में कहा गया है कि वितरण-दान कोई न कोई किसी रूप में फल देने वाला हो सकता है। व्यावहारिक रूप में, तात्कालिक रूप में या एक उपादान रूप में वह फल देने वाला हो सकता है। दान प्रीति को बढ़ाने वाला बन जाता है। शुद्ध साधु को दान देने से आध्यात्मिक दृष्टि से कल्याणकारी दान हो जाता है। दान संबंधों को एक मधुरता प्रदान कराने वाला, मजबूत बनाने वाला और सम्मान को बढ़ाने वाला भी बन सकता है। वितरण-दान कहीं भी निष्फल नहीं होता। दान एक व्यापक तत्त्व है। दान का विश्लेषण भी किया जा सकता है। लौकिक दान-लोकोत्तर दान रूप में व्याख्या की जा सकती है।
दान केवल पैसे या भौतिक वस्तु का ही नहीं होता और भी दान हो सकता है। किसी को ज्ञान दे देना, सूत्र, अर्थ, ग्रंथ धर्म बोध तत्त्व की बातें, तात्त्विक बातें आदि का ज्ञान देना भी दान है। यह बड़ा महत्त्वपूर्ण हैज्ञान देना। पूज्य जयाचार्य के कितने-कितने ग्रंथ हैं, उनको पढ़ने से कितना ज्ञान प्राप्त हो सकता। ज्ञान भी लेने वाला चाहिए तो ज्ञान दिया जा सकता है। परमपूज्य गुरुदेव तुलसी व आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी ने भी कितनों को ज्ञान देने का, पढ़ाने का प्रयास किया था। इन दस प्रकारों से ज्ञान की विस्तृत विवेचना प्राप्त हो सकती है। पूज्यप्रवर ने नवदीक्षित मुनि मोक्षकुमार जी को अट्ठाई की तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए। पूज्यप्रवर ने श्रावकों को भी तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए। तेरापंथ प्रोफेशनल फोरम द्वारा छठा जजेज एवं एडवोकेट्स कॉन्फ्रेंसश्रनकपबपंस त्वसस पद बींदहपदह ूवतसक बदलती दुनिया में न्याय की भूमिका का पूज्यप्रवर की सन्निधि में आयोजन किया। पूज्यप्रवर ने मंगल आशीर्वाद फरमाया कि संस्कृत कोष में दो शब्द आते हैंसमज और समाज। पशुओं का समूह समज कहलाता है, अन्य प्राणियों जैसे मनुष्य का समूह समाज हो जाता है। जहाँ समाज होता है, बहुत लोगों को साथ रहने का मौका मिलता है, तो वहाँ नियम, व्यवस्था कानून की भी आवश्यकता रहती है। देवलोक में भी इसी तरह की व्यवस्था रहती है। एक अहमिन्द्र की व्यवस्था होती है, एक इंद्र की भी व्यवस्था होती है। यहाँ पृथ्वी पर पहले यौगलिक होते थे। उनमें कोई कलह नहीं होता था। धीरे-धीरे कलह बढ़ा तो दंड व्यवस्था बढ़ी। हाकार, माकार और धिक्कार की दंड व्यवस्था चलती थी। बाद में राजा प्रथा चली। लोकतांत्रिक प्रणाली हो या राजतांत्रिक प्रणाली हो, दोनों का लक्ष्य एक ही है कि जनता सुखी रहे। व्यवस्था ठीक चले। राजा या सरकार के तीन कर्तव्य होते हैंसज्जनों की रक्षा करना, असज्जनों पर अनुशासन करना और आश्रित-प्रज्ञा का भरण-पोषण करना। लोकतंत्र में न्यायपालिका होती है। दंड व्यवस्था भी होती है। साधु संस्था में भी दंडस्वरूप प्रायश्चित की व्यवस्था होती है। न्यायाधीश की व्यवस्था होती है, उसमें भी आग्रह न हो। भयमुक्त होकर न्याय करें। एडवोकेट भी न्याय संगत दलील करें। आदमी विवेक से अपना निष्कर्ष निकाले।
टीपीएफ की ओर से एडवोकेट राज सिंघवी, दिल्ली सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट हर्ष सुराणा, अनिल लोढ़ा, राकेश नौलखा ने अपनी भावना अभिव्यक्ति की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।