आगम सूक्तियों के आलोक  में आचार्यश्री महाश्रमण जी

आगम सूक्तियों के आलोक में आचार्यश्री महाश्रमण जी

आपश्री आगमों के गहन ज्ञाता हैं। संस्कृत, प्राकृत आदि आगमिक भाषाओं के विद्वान हैं। उसी आगम परिप्रेक्ष्य में आपश्री का जीवन अपनी तुच्छ बुद्धि से अवलोकन करने का प्रयास कर रही हूं। आपश्री के जीवन में सागर सी अमाप्य गहराई है, जिसे शब्दों के दायरे में नहीं बाँधा जा सकता। फिर भी आपके कुछ गुणों पर प्रकाश डालने का प्रयास कर रही हूं, जिससे मेरी आत्मा भी उन गुणों को आत्मसात कर पवित्र पावन बन सके।
1. अरइं आउट्टे से मेहावी - जो अरति से निवृत्त होता है, वह बुद्धिमान है। सांसारिक विषयों के प्रति अरुचि ने आपके जीवन को वैराग्य की तरफ मोड़ दिया।
2. न सरीरं चाभिकंखए - जो भिक्षु होता है वह अपने शरीर की आकांक्षा नहीं रखता। आप श्री ने संघ हित व धर्मशासन की प्रभावना में हमेशा अपने शरीर को गौण किया है।
3. न यह कुज्जे, निहुइंदिए पसंते - जो कुपित नहीं होता, जिसकी इंद्रियां उत्तेजित नहीं होती, जो सदैव प्रशांत रहता है। क्रोध आपके स्वभाव में ही नहीं है।
4. समाहि उप्पायगा य गुणगाही - साधक समाधि उत्पन्न करने वाले और गुणग्राही होते हैं। आप श्री के सान्निध्य में चारों तीर्थ समाधि की प्राप्ति कर रहे हैं।
5. पवेयए अज्जपयं महामुणी - जो शुद्ध धर्म का उपदेश करता है वह महामुनि है। आप श्री के प्रवचन आगम वाणी से ओतप्रोत होते हैं।
6. तितिक्खमाणे परिव्वए - परिषह उपसर्गों को समभाव से सहन करें।
7. भावणाहि य सुद्धाहिं सम्मं भावेतु अप्पयं - जो शुद्ध भावनाओं के द्वारा आत्मा को सम्यक्तया भावित करते हैं। आपश्री हमेशा सभी को यही प्रेरणा करते हैं कि हर क्रिया अध्यवसायों की विशुद्धि एवं अहोभावों से युक्त होकर करें।
8. पुत्वकम्मखयट्ठयाए इमं देहं समुद्दरे - आचार्य श्री का एक ही चिंतन है कि यह शरीर हमें पूर्व कृत कर्मों का क्षय करने के लिए मिला है। इसी चिंतन में आपश्री ने अपने शरीर को सदैव कर्म क्षय के पुरुषार्थ में लगाए रखा है।
9. विविहगुणतवोरए य निच्चं - जो विविध गुणों एवं तप में रहता है। आचार्य श्री गुणों के भंडार हैं। आपश्री में सरलता, अप्रमत्ता, निर्भीकता, दृढ़ता, सहनशीलता, कष्टसहिष्णुता, अप्रतिक्रियाशीलता, नम्रता आदि गुण कूट-कूट कर भरे हैं। आपका जीवन बाह्य एवं आभ्यंतर तप से सुशोभित है।
10. रायणिएसु विणयं पउंजे - रत्नाधिकों का विनय करें। आपश्री का जीवन विनय गुण से ओतप्रोत है। आचार्य पद को सुशोभित करते हुए भी आप अपने रत्नाधिकों संतो को वंदन करते हैं। 'शासनमाता' साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी को आप अपनी माता तुल्य समझते थे तथा उन्हें वंदन करते थे।
11. नंदण वण मणहर - नंदनवन के समान मनोहर। आप श्री का जीवन नंदनवन में पल्लवित पुष्पों की तरह अनेक गुण पुष्पों से सुशोभित है। ऐसे परमपूज्य युग प्रधान आचार्य श्री को उनके दीक्षा कल्याण वर्ष पर हार्दिक-हार्दिक अभिवंदना।