संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

युग के आरंभ में जातियों की व्यवस्था नहीं थी। वह यौगलिक युग था। जनसंख्या भी अधिक नहीं थी। जो भाई-बहन के रूप में एक साथ उत्पन्न होते और पति-पत्नी बनकर एक साथ ही मरते उन्हें युगलचारी यौगलिक कहा जाता था। यौगलिक युग पलटा और कर्म का युग आया। तब भगवान् ऋषभनाथ ने कर्म के आधार पर व्यक्तियों का विभाजन किया। समय के साथ-साथ उनमें कितने उतार-चढ़ाव आए हैं, इसे इतिहासज्ञ जानते हैं।
१. ब्राह्मण-ब्रह्म–आत्मा की उपासना करना, औरों को इसका उपदेश करना ब्राह्मण का काम था। आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है–ब्राह्मण का काम 'माहण माहण'- 'हिंसा मत करो' यह उपदेश देना था। 'माहण' शब्द ही ब्राह्मण के रूप में व्यवहृत होने लगा। गीता में प्रशान्तता, आत्मसंयम, तपस्या, पवित्रता, सहनशीलता, ईमानदारी, ज्ञान-विज्ञान और धर्म में श्रद्धा-ये ब्राह्मण के स्वाभाविक गुण हैं।
२. क्षत्रिय–आततायियों से देश आदि की रक्षा करने वाला वर्ग।
३. वैश्य–व्यापार, कृषि आदि से वृत्ति करने वाला वर्ग।
४. शूद्र–समाज की सेवा करने वाला वर्ग।
इस व्यवस्था में काम की मुख्यता है। जन्म मात्र से कोई ऊंचा और नीचा नहीं होता। एक ब्राह्मण भी शूद्र हो सकता है और एक शूद्र भी ब्राह्मण। यह सारी एक मनोवैज्ञानिक पद्धति थी। श्री गेलार्ड ने अपनी पुस्तक 'मैन दी मास्टर' में समाज के चतुर्विध संगठन की आवश्यकता पर जोर दिया है।
भगवान् महावीर जातिवाद के विरोधी थे। उन्होंने कहा– यह अधर्म है, उन्माद है, जो अतात्त्विक को तात्त्विक मानता है। जो व्यक्ति इन्हें शाश्वतता का चोला पहनाता है, वह मूढ़ है।
३०. यस्तिरस्कुरुतेऽन्यं स, संसारे परिवर्तते । 
मन्यते स्वात्मनस्तुल्यान्, अन्यान् स मुक्तिमश्नुते ।।
जो दूसरे का तिरस्कार करता है, वह संसार में पर्यटन करता है और जो दूसरों को आत्म-तुल्य मानता है, वह मुक्ति को प्राप्त होता है।
मुक्ति विषमता में नहीं, समता में है। घृणा, तिरस्कार, अपमान में विषमता है। इनका प्रयोग प्रयोक्ता पर ही प्रहार करता है। वह कभी उठ नहीं सकता। शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक तीनों ही दृष्टि से उसका पतन होता है। आज के मनोवैज्ञानिकों ने इसे कसौटी पर कसा है। 'शत्रु को बार-बार क्षमा कर दो' इस प्रकार का आचरण कर रक्तचाप, हृदयरोग, उदर-व्रण आदि अन्य कई व्याधियों से दूर रह सकते हैं। मिल्वो की पुलिस विभाग के एक बुलेटिन में लिखा है- 'जब आप जैसे के साथ तैसा करते हैं तो अपने शत्रु को दुःखी करने के बजाय आप स्वयं दुःखी बन जाते हैं। घृणा का परिणाम कभी भी अच्छा नहीं होता।' अब्राहम लिंकन ने कहा था- 'उदारता सबके लिए करो, पर घृणा किसी के लिए नहीं। 'बाइबिल कहती है– 'प्यार से खिलाए गए कंद-मूल घृणा से खिलाये गए पकवान से अधिक स्वादिष्ट लगते हैं।
३१. अनायको महायोगी, मौनं पदमुपस्थितः।
  साम्यं प्राप्तः प्रेष्यप्रेष्यं, वन्दमानो न लज्जते॥
जिसका कोई नायक नहीं है, वह चक्रवर्ती मौनपद-श्रामण्य में उपस्थित होकर महायोगी बना और समत्व को प्राप्त हुआ, वह अपने से पूर्व दीक्षित अपने भृत्य के भृत्य को भी वंदना करने में लज्जित नहीं होता। साधुत्व समता की आराधना है। छोटे और बड़े के विचारों में अहं का जन्म होता है। साधक अहं से ऊपर विचरने वाला होता है। वहां छोटे और बड़े का भेद नहीं है। यह भेद कृत्रिम है। साधुत्व में मुख्यता है संयम की। दो व्यक्ति साथ-साथ दीक्षित होते हैं–एक चक्रवती है और दूसरा उसका नौकर। संयम की दृष्टि से दोनों समकक्ष है। संयम में चक्रवर्ती और सेवक का भेद मिट जाता है। वहां समता का साम्राज्य रहता है।