
सत्य में शब्द से ज्यादा महत्त्व भावना का होता है : आचार्यश्री महाश्रमण
भीलवाड़ा, 22 सितंबर, 2021
संयम रत्न प्रदाता आचार्यश्री महाश्रमण जी ने प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि हमारी दुनिया में सत्य शब्द चलता है। असत्य भी चलता है। सत्य शब्द में एक अर्थमहात्म्य निहित है। जो जैसा है, उसी रूप में जानना, उसी रूप में प्रकट करना, उसी रूप में श्रद्धा रखना। यह एक सत्य से संदर्भित आराधन प्रतीत होता है।
हम सत्य की आराधना, मन, वाणी और काय से भी कर सकते हैं। भाषा के संदर्भ में शास्त्रकार ने सत्य के दस प्रकार बताए हैं। सत्य में शब्द का महत्त्व तो थोड़ा है, भावात्मकता का महत्त्व ज्यादा है। सत्य में लाभ या झूठ बोलने से जो पाप की बात है, वह शब्द मेें तो गौण लग रहा है, मूल आत्मा की भावना कैसी है, आशय-लक्ष्य क्या है? केवल शब्द की सीमा तक शब्द को रखना बहुत-बहुत छोटी बात है। ज्यादा संबंध आदमी की भावना से होता है।
शब्द तो अपने आपमें जड़ है। सत्य का पहला प्रकार हैजनपद सत्य। अलग-अलग क्षेत्रों में एक ही पदार्थ को अलग-अलग नाम से बोलना, जैसे तमिल में पानी को तनी, कन्नड़ में नीरू या संस्कृत में वारि बोलना। सब सत्य है। दूसरा हैसम्मत सत्यजैसे पंकज यानी कीचड़ में पैदा होना। कीचड़ में कमल भी पैदा होता है और मेंढ़क भी। पर यहाँ पंकज शब्द कमल के लिए कहा गया है। मेंढ़क के लिए पंकज बोलना गलत हो जाता है।
तीसरा सत्य हैस्थापना। जैसे शतरंज के मोहरों को हाथी, ऊँट, घोड़ा आदि कहते हैं। चौथा हैनाम सत्य। जैसे नाम तो है, लक्ष्मीधर पर है, वो गरीब। पाँचवाँ सत्य-रूप-सत्य। जैसे कोई पुरुष संन्यासी का वेष पहन ले तो उसे साधु बोल देना। भावना में छलना नहीं है, सहज रूप में बोल दिया। सातवाँ हैप्रतीक सत्य। सापेक्ष बात होती है, किसको हल्का-भारी या छोटा-बड़ा कहना ये सापेक्ष बात हो जाती है।
सातवाँ सत्य हैव्यवहार सत्य। व्यवहार की भाषा बोलना, जैसे गाँव आ गया। पर वास्तव में गाँव नहीं आया, हम गाँव में आ गए हैं। आठवाँ सत्य हैभाव सत्य-पर्याय के संदर्भ में सत्य। जैसे दूध सफेद है पर निश्चय में तो दूध में पाँचों वर्ण हैं। नौवाँ प्रकार हैयोग सत्य। अरे मुखपति वाले इधर आओ। है, तो आदमी पर मुखपति लगी होने से मुखपति से पहचान हो रही है। दसवाँ प्रकार हैऔपम्य सत्य। उपमा लगाकर बोलना। जैसे नयन कमल, मुखारविंद।
सत्य में शब्द गौण है, भावना मुख्य है। कोई छलकपट से बात बोलता है, तो वह अर से सत्य है, पर उसके भाव असत्य हैं। सच्चाई में सरलता का महत्त्व है। सरलता है, तो पवित्रता रह पाएगी। शब्द और वाक्य इन दोनों को ध्यान में रखते हुए सत्य का प्रयोग करेंगे तो हम सत्य के संदर्भ में पाप मुक्त रह सकेंगे।
साधु के पाँच महाव्रत होते हैं। दूसरा महाव्रत हैसर्व मृषावाद विरमण। साधु की भावना सही और कपट रहित होनी चाहिए। भावों में शांति-निष्कपटता रहे। लोभ, हास्य भागों में न हो। शब्द का बड़ा आधार है, भाव-शुद्धि। आदमी ध्यान रखे कि में ऐसा शब्द बोलूँ कि जो बात मैं कहने जा रहा हूँ वो सामने वाला पकड़ सके। श्रोता भी समझे कि वक्ता का आशय क्या है?
एक शब्द के अनेक शब्दार्थ किए जा सकते हैं। जैसे सेन्धव। सेन्धव घोड़े को भी कहते हैं और नमक को भी कहते हैं। अनेकार्थ से गलतफहमी हो सकती है। भाषा जगत में एक शब्द का एक ही अर्थ हो तो सुगमता हो जाए। शास्त्रकार ने सत्य के दस प्रकार बताकर अर्थ और शब्द का महत्त्व समझाया है।
बड़ी दीक्षा - छेदोपस्थापनीय चारित्र ग्रहण
पूज्यप्रवर ने फरमाया कि एक सप्ताह पहले विकास महोत्सव के दिन तेरह व्यक्तियों ने मुनीत्व स्वीकार किया था। एक संत और बारह साध्वियाँ हैं। एक सप्ताह बाद बड़ी दीक्षा या स्थानांतरण सा हाता है। प्रमोशन सा होता है। सामायिक चारित्र से प्रमोशन-उन्नयन और छेदोपस्थापनीय चरित्र में प्रवेश होता है।
पूज्यप्रवर ने तेरह नव-दीक्षितों को पाँच महाव्रत एवं छठा व्रत रात्रि भोजन विरमण का तीन करण-तीन योग से आजीवन त्याग करवाकर छेदोपस्थापनीय चारित्र में स्थापित किया। आत्महित के लिए स्वीकार करवाया। सभी की अच्छी खूब साधना चलती रहे। पूज्यप्रवर ने बड़ी-छोटी तपस्याओं के प्रत्याख्यान करवाए।
मुख्य नियोजिका जी ने कहा कि नंदी सूत्र आगम व अभिधान चिंतामणी ग्रंथ में बुद्धि के आठ गुण बताए हैं। सुश्रुषा (सुनने की इच्छा) श्रवण, ग्रहण, धारण, अह, (युक्ति संगत तर्क), अपोह (पोषपूर्ण पक्ष का खंडन) अर्थ ज्ञानं (पदार्थ का विशेष ज्ञान) और तत्त्व ज्ञानं (वास्तविक का ज्ञान करना) को विस्तार से समझाया।
बड़ी दीक्षा से पूर्व नव दीक्षित साध्वी मेघप्रभा जी, साध्वी पार्श्वप्रभा जी, साध्वी सुश्रुतप्रभा जी एवं सभी नवदीक्षित साध्वियों ने समूहरूप में स्वाध्याय और अनुभव विषय पर बहुत सुंदर प्रस्तुति व अपनी भावना-अनुभव अभिव्यक्त की। नव दीक्षित मुनि मोक्षकुमार जी ने भी अपने पूर्व संस्मरण व नए अनुभव अभिव्यक्त किए।
कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।
आमेट निवासी उमा देवी हिरण ने 31 की तपस्या, सागरमल रांका-कारोई 29 की तपस्या, राकेश नौलखा-गंगापुर 27 की, नीलू मेहता-उदयपुर 24 की तपस्या के पूज्यप्रवर ने प्रत्याख्यान लिए।