अमल-धवल देदिप्यमान श्रमण: मुनि हर्षलाल जी

अमल-धवल देदिप्यमान श्रमण: मुनि हर्षलाल जी

जो ऋद्धि-सत्कार, पूजा, प्रतिष्ठा, के मोह से मुक्त है, स्थितात्मा और निस्पृह है, वही भिक्षु है। संतता वेश और परिवेश नहीं, क्लेश परिवर्तन का पथ है। कोई पूछे कि श्रमणत्व की परिभाषा क्या है? तो सारी परिभाषाएं जिस एक मुनि पर जाकर ठहरती है, वही है 'शासनश्री' मुनि हर्षलाल जी। किसी ने उन्हें फिजूल समय खर्च करते नहीं देखा, समय का एक भी टुकड़ा मिला तो नन्ही उंगलियों में माला लिपट जाती और चेतना इष्ट स्मरण में दत्त चित्त। फिर भी अगर लगा कि समय है तो दशवेकालिक, उत्तराध्ययन की छोटी-छोटी गुटिकाएं हाथ में लिए आद्योपांत स्वाध्याय की यात्रा में लीन हो जाते। एक पल भी प्रमाद में क्यों खर्च हो? यही बात मुनिश्री को सबसे अलग मुनि बनाती है। मुनिश्री ने पुरुषार्थ के अनगिन स्तंभ स्थापित किए थे जिसे तेरापंथ धर्मसंघ सदा पूज्यता की दृष्टि से निहारता रहेगा। जीवन के आठवें दशक में भी अपने एक हाथ में गेडिया थामे दूसरे हाथ में पात्रयुक्त झोली लिए स्वयं गोचरी के लिए निकल पड़ते तो देखने वाले गर्व से कह उठते - 'वाह मुनेश ! पुरुषार्थ और स्वावलम्बन हो तो ऐसा।‘आचार्यश्री तुलसी के चिंतन में- ‘तुम सदा से समर्पित रहे हो, गुरु का आदेश ही तुम्हारा जीवन व्रत है।' आचार्यश्री महाश्रमणजी के शब्दो में- 'मुनि हर्षलाल जी स्वामी की विनयशीलता प्रशस्त है, आप की विशेषताएं स्तुत्य हैं।' इन शब्दों की यात्रा पर चलें तो भाव उर्जस्वल हो उठते हैं, जिस शिष्य के प्रति गुरु के ये बोल हो, उस शिष्य ने यहां तक अपनी पहुँच बनाने अपना कितना समर्पण उडेल दिया होगा।
बचपन से मुनि श्री ने जो पाया, सहजता से पाया। माँ हंसा देवी चौरड़िया अपने सहज कंठस्थ ज्ञान का स्वाध्याय करती तो उसे सुनते-सुनते आपने तात्विक बोल, थोकड़े, श्रावक प्रतिक्रमण, शील की नवबाड़ और अनेक प्रेरणास्पद गीत कंठस्थ कर लिए। यही वो जमीन थी जिस पर वैराग्य का दरखत उग आया था। फिर गुरु कृपा से मिला सहज मुनि सोहनलालजी 'डूंगरगढ़' का एक माह का प्रवास, सहवर्ती मुनि गणेशमलजी का जादुई प्रभाव, आस्था का गहरा रंग बनकर वैराग्य को मजीठी बनाता रहा। अंततः गुरुदेव तुलसी ने आपको घर बैठे ही दीक्षा का आदेश प्रदान कर दिया। टेलिग्राम के माध्यम से जानकारी मिली कि माघ शुक्ला सप्तमी वि. सं 2002 के मध्यान्ह में आपको गुरुदेव के करकमलों से भागवती दीक्षा ग्रहण करने का निर्देश प्राप्त हुआ है।
मुनि होकर श्रमणत्व को सदा सर्वोच्चता पर रखने की आपकी अपनी निष्ठा को हर सांस में जीते हुए आपने अनेकों राज्यों की यात्रा कर अणुव्रत, प्रेक्षाध्यान, तेरापंथ के सिद्धांतों को समझाने में अपनी भूमिका निभाई। जिसे चश्मे को माध्यम बनाकर भी पढ़ना सहज ना हो सके, उन सूक्ष्म अक्षरों की लिपि से आदिनाथ स्तोत्र, दशवैकालिक सूत्र, शांत सुधारस, जैन सिद्धांत दीपिका का लेखन, वो भी चश्मे को बिना जरिया बनाए, यह मुनि हर्षलाल जी ही हो सकते हैं, जिन्होंने तेरापंथ धर्मसंघ को कला की यह विरासत निष्काम भाव से सौंप दी। आज भी उस हस्त शिल्प कला को देखकर भारतीय कला मर्मज्ञ और विदेशी सैलानी दांतों तले उंगली दबाते हुए दिखते हैं। कंठस्थ ज्ञान की विशाल निधि स्वयं में समेटे हुए मुनिश्री ने स्वाध्याय को आहार-पानी प्रतिक्रमण की तरह एक अनिवार्य आदत बना लिया। दशवैकालिक, आवश्यक, व्याकरण की बात हो तो सम्पूर्ण कालु कौमुदी, कोष का जिक्र हो तो अभिधान चिंतामणि, तत्वज्ञान का पहलू हो तो जैन सिद्धांत दीपिका, पच्चीस बोल, पाना की चर्चा, तेरह द्वार, लघु दडक, बांसठिया, जाण पणा का पच्चीस बोल, अल्पा बहुत का थोकड़ा, पद्यमय साहित्य का उल्लेख हो तो श्रीराम चरित्र, जयाचार्य कृत चौबीसी, आराधना, शांत सुधारस, मनोनुशासनम, कर्तव्य षटत्रिंशिका, रत्नाकर पंचविंशति आदि ने आपके कंठस्थ ज्ञान को समृद्धि दी।
कौन सा वह पहलू है जो मुनिश्री के जीवन में कहीं हाशिये पर ठहर जाए, शायद एक भी नहीं। तपस्या के क्षेत्र में भी आपने सदा अपनी निर्जराकांक्षिता को बनाये रखा। 3000 से भी ज्यादा उपवास, 105 बेले, 3 तेले, 250 से अधिक आयंबिल आपके सहज तपस्वी होने की गवाही दे रहा है। इस महामुनि के जीवन का एक-एक पड़ाव इतनी विराटता, इतनी विशिष्टा लिए क्यों है? अगर प्रश्न यह है तो उत्तर मुनिश्री के जन्म कुंडली में मिलेगा। गुरु छठे स्थान पर, सूर्य-बुध पाँचवे, मंगल, शुक्र, केतु चौथे, शनि और राहु दसवें स्थान पर एक दिव्य ज़ीवन की घोषणा करता है।
ज्योतिषीय फलादेश कहते हैं -
-जातक की बुद्धि, तीक्ष्ण है, विद्याधारक होने से लोगों को प्रभावित करेंगे।
-सदा स्वावलंबी रहेंगे।
-स्वभाव शांत, मृदु, कषाय व वासना
-पशांत रहेंगे।
-खुली हवा में स्वास लेना पसंद है।
-आप एक दिव्य कलाकार हैं, शिल्पकार के रूप में प्रतिष्ठित होंगे।
-स्वास्थ्य सदा कमजोर रहेगा, स्वास्थ्य की रक्षा करें।
⁠ज्योतिषीय घोषणाओं को अक्षरशः साकार होते देखा है। सौभाग्य है मेरा कि मुनि श्री की दिव्य आत्मकथा को सम्पादित करने का दायित्व मेरी लेखनी को मिला, प्राण-प्राण में संघ सेवा को रमाए हुए मुनि श्री ने मुनि यशवंत कुमार जी की जन्म भूमि जसोल में अपना घोषित चातुर्मास किए बिना कानाना में ही इस अनित्य सृष्टि को अलविदा कह कर 'ज्यूं की त्यूं धर दीन्हि चदरिया' को साकार करते हुए महाव्रती के महिमामय जीवन की इति की। आप अपने चरम उन्नयन के लक्ष्य की ओर शीघ्र आरोह‌ण करे । मन की अनंत-अनहद विनयांजली ।