त्यागी-साधनाशील साधु की वाणी सुनने से मिल सकता है पथ दर्शन : आचार्यश्री महाश्रमण
तीर्थकर के प्रतिनिधि आचार्यश्री महाश्रमणजी ने जलगांव प्रवास के द्वितीय दिन पावन प्रेरणा पाथेय प्रदान कराते हुए फरमाया कि हम पंचेन्द्रिय प्राणी हैं और उसमें भी मनुष्य हैं। पंचेन्द्रिय प्राणी वह होता है जिसके पास कान होता है, सुनने का साधन होता है। आंख होने मात्र से जीव पंचेन्द्रिय प्राणी नहीं हो जाता है, श्रवणेन्द्रिय होने से ही जीव पंचेन्द्रिय कहला सकता है। कान हमारे पास हैं, हम सुनते भी हैं। सुनने से लाभ भी हो सकता है। सुनकर आदमी कल्याण को जान लेता है तो पाप को भी जान लेता है। जानने के बाद जो हेय-त्याज्य है, उसको छोड़ने का और जो श्रेय-कल्याणकारी है उसे स्वीकार करने का प्रयास होना चाहिए। श्रेय पथ, सन्मार्ग पर चलने से कल्याण हो सकता है। सुनने से ज्ञान मिलता है। वर्तमान में सोशियल मीडिया के इतने साधन हो गये हैं, जिनसे दूर बैठे-बैठे प्रवचन सुना जा सकता है। इन यंत्रों की उपयोगिता भी है पर इनका दुरूपयोग न हो। इनके प्रति एडिक्शन नहीं हो, इनका उपयोग करना विवेक का विषय है। साधु जो त्यागी-साधनाशील और संयमी हैं, उनकी वाणी सुनने से पर्युपासना भी हो जाती है और अनेकों जानकारियां भी मिल जाती हैं।
कई बार सुनते-सुनते पथ दर्शन मिल जाता है। त्याग और ज्ञान दोनों जिनके जीवन में हो ऐसी चारित्रात्माओं की वाणी सुनना अच्छा ही है, इससे अनेक लाभ मिल सकते हैं। वाणी जीवन में उतरे तो बहुत अच्छी बात है न उतरे तो भी जब तक सुन रहे हैं तब व्यक्ति अनेकों सांसारिक कार्यों से वंचित रह जाते हैं और पापों के बंधन से बचाव हो सकता है। ध्यान से सुनने से कई नई जानकारियां मिल सकती है और कई पूर्व जानकारियां पुष्ट हो सकती हैं। प्रवचन सुनते-सुनते मन की जिज्ञासा का समाधान और अपने जीवन की समस्या का समाधान भी मिल सकता है। सुनते-सुनते श्रोता अच्छा वक्ता भी बन सकता है। प्रवचन सुनने के समय सामायिक लेने से सामायिक का लाभ भी मिल सकता है।
जीवन में कठिनाइयां आ सकती हैं, सामान्य व्यक्ति तो क्या, साधुओं के जीवन में भी कठिनाइयां आ सकती हैं। अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में, संपत्ति और विपत्ति की स्थिति में भी मानसिक संतुलन बनाये रखना धर्म की साधना है। कठिनाई का हल निकाला जा सकता है। समस्या और दु:ख एक चीज नहीं है। समस्या में भी दु:खी न हो, तनाव में न जाएं, मन में शांति बनी रहे। शांति में रहना जीने की बड़ी कला है, न ज्यादा गुस्सा करना, न ज्यादा लोभ करना, दूसरों के धार्मिक आध्यात्मिक उत्थान में सहयोग करना। कान से अच्छी बातें सुनी जा सकती है, दु:खी आदमी का दुखड़ा भी शांति से सुन लें। सहानुभूति से किसी का दुःख सुनने से उस व्यक्ति को राहत मिल सकती है, फिर जितना हो सके उतना सहयोग करें। फालतू बातों में कानों का उपयोग न करें। श्रोतेन्द्रिय का अच्छा उपयोग करें, जीवन में धार्मिकता, आध्यात्मिकता की साधना के प्रति जागरूक रहें।
व्यक्ति यह सोचे कि पूर्व संचित पुण्य के योग से इस जीवन में अच्छा स्थान मिला है पर आगे के लिये भी कुछ सोचें। पुण्य से भी आगे मोक्ष प्राप्ति के लिए हम धर्म की साधना करें। साध्वीवर्याजी ने अपने उद्बोधन में कहा कि हमें अपने जीवन का मूल्यांकन करना है कि क्या हम वास्तव में श्रावकोचित धर्म का पालन कर रहे हैं ? संघ रूपी प्रासाद के चार स्तम्भ हैं- साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका। आचार्य श्री तुलसी ने 'श्रावक संबोध' में लिखा है कि श्रावक-श्राविकाएं जिन शासन के अभिन्न अंग होते हैं और वे जिन शासन की प्रभावना में लगे रहते हैं। पूज्यवर भी जिनशासन की प्रभावना के लिए, श्रावक-श्राविकाओं की सार संभाल के लिए, पर कल्याण के लिए प्रलम्ब यात्रा करवा रहे हैं। श्रावक अपने आचरण को ऐसा बनाए जिससे वह शासन की प्रभावना बढ़ा सके। सामायिक, बारह व्रत, सुमंगल साधना भी श्रावक के आत्मिक जीवन का उत्थान करने वाले हैं।
संसार पक्ष में जलगांव से सम्बद्ध मुनि जितेंद्र कुमार जी एवं मुनि नय कुमार जी ने पूज्यवर के स्वागत में अपने आस्थासिक्त उद्गार व्यक्त किए। पूज्यप्रवर ने मुनिद्वय को सेवा के क्षेत्र में आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। पुलिस अधीक्षक डॉ. महेश्वर रेड्डी, पूर्व महापौर जयश्री महाजन ने आचार्य प्रवर के दर्शन कर आशीर्वाद प्राप्त किया। तेरापंथ युवक परिषद्, कन्या मंडल, किशोर मंडल, ज्ञानशाला प्रशिक्षिका बहनों, भिक्षु भजन मंडली, गौरा देवी छाजेड़ एवं कंचन देवी छाजेड़ ने पृथक-पृथक गीतों से अपने आराध्य का स्वागत किया। टीपीएफ अध्यक्ष संजय चोरड़िया, पवन सामसुखा, मोक्ष बरड़िया ने भी अपनी भावाभिव्यक्ति दी। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।