चित्त समाधि के लिए दूसरों पर अवलम्बित न रहें : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

चित्त समाधि के लिए दूसरों पर अवलम्बित न रहें : आचार्यश्री महाश्रमण

धर्मचक्रवर्ती आचार्यश्री महाश्रमणजी ने प्रेरणा पाथेय प्रदान करवाते हुए फरमाया कि वर्तमान अवसर्पिणी में जम्बूद्वीप के इस भरत क्षेत्र में चौबीस तीर्थंकर हुए हैं। प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभनाथ और चौबीसवें और अंतिम तीर्थंकर श्रमण भगवान महावीर हुए हैं। तीर्थंकर अपने आप में आदिकर्ता होते हैं, कोई किसी के उत्तराधिकारी नहीं होते हैं। आचार्यों में तो उत्तराधिकार की परंपरा हो सकती है। सब तीर्थंकर अपने आप में आदिकर होते हैं, स्वतंत्र होते हैं। चौबीस तीर्थंकरों में सोलहवें तीर्थंकर भगवान शांतिनाथ हुए हैं। वे चक्रवर्ती और महर्द्धिक थे, लोक में शांति करने वाले थे। अंत में भारत वर्ष को छोड़कर अनुत्तर गति मोक्ष को प्राप्त हो गये थे।
भौतिक दृष्टि में चक्रवर्ती बनना बहुत बड़ी बात है। चक्रवर्ती से बड़ा सत्ताधीश भौतिक जगत में मिलना मुश्किल है और आध्यात्मिक जगत में तीर्थंकर से बड़ा आदमी मिलना मुश्किल है। भगवान शांतिनाथ ऐसे व्यक्तित्व थे जो एक ही जीवनकाल में चक्रवर्ती और तीर्थंकर दोनों बन गए थे। भगवान शांतिनाथ शांति करने वाले हैं। दूसरों के निमित्त से शांति मिल सकती है। लक्ष्य यह रहे कि खुद भी शांति में रहो और दूसरों को भी शांति में रहने दो। शांति जो भीतर में होती है, वह स्व अनुभव गम्य होती है। आदमी अच्छी साधना करे, स्वयं पर अनुशासन रखे तो वह शांति में रह सकता है। चित्त समाधि तो स्वयं के हाथ में ही है, चित्त समाधि के लिए दूसरों पर अवलम्बित न रहें। फालतू बातों को दिमाग में स्थान न दें। हमारी शांति हमारे हाथ में रहे, अपने कषायों पर नियंत्रण रखें, ज्यादा तनाव न रखे। जानना अलग बात है, संवेदना करना अलग बात है। ज्ञान के बाद संवेदना होना अच्छा नहीं है। किसी के कहने से हम छोटे या बड़े नहीं हो जाते हैं। हम अपनी ओर से किसी की शांति में बाधा न पहुंचाएं।
हमें ज्यादा गुस्सा आयेगा या ज्यादा चिन्ता होगी तो अशांति हो सकती है। चिन्ता और चिता में थोड़ा सा अन्तर है। चिता तो निर्जीव को जलाती है, चिन्ता सजीव को जला देती है। चिन्ता नहीं चिन्तन करो, समस्या का उसका समाधान खोजने का प्रयास करो। भय, लोभ, लालसा से भी आदमी चिन्ता करने लग जाता है। मन की सारी इच्छाएं पूरी हो जाए यह तो कठिन है, मन में शांति रखें, तनाव मुक्त रहें। उचित पुरूषार्थ करें, प्रयत्न करने पर भी सफलता न मिले तो तनाव न करें, उसमें हमारा कोई दोष नहीं। पुरुषार्थ में कमी रही हो तो उसे दूर करने का प्रयास जरूर हो।
संसाधनों से सुविधा मिल सकती है, पर शांति तो साधना से मिलेगी। प्रभु शांतिनाथ के नाम में ही शांति है। उनसे हम स्वयं शांति में रहने की व दूसरों को शांति में रहने देने की प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं। आचार्य प्रवर के स्वागत में भाऊसाहब गुलाबराव पाटिल विद्यालय के प्रतापराव पाटिल ने अपने उद्गार व्यक्त किए।