निस्पृह साधक थे 'शासनश्री'  मुनिश्री हर्षलालजी स्वामी

निस्पृह साधक थे 'शासनश्री' मुनिश्री हर्षलालजी स्वामी

भारतीय संस्कृति में संत परम्परा बहुत विशिष्ट रही है। संत परंपरा ने संस्कृति को ऊंचा रखने में बहुत योगदान दिया है। सभी धर्म सम्प्रदायों में अपने-अपने ढंग से संतों की परम्परा रही है। उसमें जैन धर्म संतत्व को गौरवान्वित करने वाला रहा है। जैन धर्म के तेरापंथ सम्प्रदाय में भी संतों की बड़ी उज्जवल साधना रही है। उन्हीं संतों में एक नाम था 'शासनश्री' मुनिश्री हर्षलालजी स्वामी का।
मुनिश्री हर्षलालजी स्वामी के जीवन में बहुत विशेषताएं थी। मैंने जितना जाना, देखा और समझा, वे निस्पृह साधक थे। विनम्रता उनके रोम-रोम में थी। सेवाभावना उन जैसे विरलों में होती है। उनको देखकर ऐसा लगता मानो संतता को वे सच्च अर्थ में जी रहे थे। उनके लिए हमारे संघ में प्रसिद्ध वाक्य चलता था 'हर्षलालजी स्वामी चौथे आरे के संत है।' मैं आज बहुत गमगीन हूं, मुनिश्री के प्रयाण के समाचार सुनकर। रह-रह कर मुनिश्री के सान्निध्य में बिताए वे पल याद आ रहे हैं। मुझे 'शासनगौरव' मुनिश्री राकेश कुमारजी स्वामी के बाद आज किसी की बहुत याद आ रही है तो वे मुनिश्री हर्षलालजी स्वामी हैं।
मुनिश्री हर्षलालजी स्वामी की जन्मभूमि मेवाड़ की पवित्रधरा थी। लाछुड़ा गांव को उनकी जन्मभूमि होने का गौरव प्राप्त हुआ। मुनिश्री के जीवन मे गांव का बहुत असर था। आपने गुरुदेव तुलसी के कर-कमलों से अल्पायु में दीक्षा ग्रहण की। आप में गुरुदृष्टि आराधने की अनुपम कला थी। जहां गुरुदेव ने आपको नियोजित किया वहां आप समर्पण भाव से रहे। अनेक संतों की सेवा का कीर्तिमान बनाया। आपमें गुरु के प्रति समर्पण अद्‌भुत था। इसलिए गुरुदेव तुलसी आपके लिए संदेश देते हुए प्रारंभ में लिखवाते - 'विनीत शिष्य मुनि हर्षलाल!' नहीं तो प्रारंभ में सामन्यतया गुरुदेव केवल शिष्य लिखवाते। मुनिश्री की लिपि कला बेजोड़ थी। एक पन्ने में श्रीमद भगवद्‌गीता जैसा ग्रंथ लिखकर अनुपम कार्य कर दिखाया।
मुनिश्री ने और भी कई आगम आदि सूक्ष्म लिपि में लिखकर संघ के भंडार की श्रीवृद्धि की। मुनिश्री का तत्वज्ञान भी अच्छा था। आपका मुनिश्री राकेश कुमारजी के सान्निध्य में बहुत रहना हुआ। वह आपके लिए भी वरदान साबित हुआ। मुनिश्री के साथ दिल्ली, बम्बई, कलकता, जयपुर जैसे बड़े-बड़े महानगरों रहना हुआ। आपने मुनिश्री राकेश कुमार जी स्वामी के साथ 27 चातुर्मास किए। मुनि श्री के साथ सर्वाधिक आप रहे। मुनिश्री फरमाते थे 'बड़े शहरों में प्रवास के दोरान कई बार बाहर कार्यक्रम होते तो हर्ष मुनि ठिकाने में रहकर व्याख्यान आदि, सारी जिम्मेदारी संभाल लेते। मैं उनके कारण निश्चिंत रहता।' हर्षलालजी स्वामी के अग्रगण्य बनने के बाद भी आपने गुरुदेव से अर्ज करके मुनिश्री राकेश कुमारजी स्वामी के साथ कई चातुर्मास किए। आपका और मुनिश्री का बहुत जुड़ाव था। एक बार आचार्यश्री महाप्रज्ञ‌जी ने मुनिश्री राकेश कुमारजी स्वामी को फरमाया- 'तुम्हारे और हर्षलालजी के मन के तार जुड़े हुए हैं।'
सन् 2000 में मुनिश्री राकेशकुमारजी स्वामी दिल्ली में अस्वस्थ थे। आपने गुरुदेव से निवेदन किया 'मुझे राकेशकुमारजी स्वामी के सेवा में भिजवाने की कृपा करायें'। गुरुदेव ने कृपा कराई और आप तारानगर मर्यादा महोत्सव के बाद एकाकी विहार कर दिल्ली में मुनिश्री की सेवा में पधारे। उस समय के युवाचार्य श्री महाश्रमणजी ने मुनिश्री के लिए संदेश देते हुए लिखा 'मुनिश्री हर्षलालजी स्वामी स्वयं अर्ज कर आपकी सेवा में पधार रहें है। मुनिश्री की सेवा भावना से हमारा मन आल्हादित है।' मुनिश्री हर्षलालजी स्वामी का सेवा भाव अनुकरणीय है।
मुनिश्री राकेशकुमारजी स्वामी के सान्निध्य में दीक्षा के बाद मेरा प्रथम चातुर्मास उद‌यपुर में हुआ। उस समय आप भी मुनिश्री के साथ संयुक्त रूप में थे। उस समय में नवदीक्षित था। हर्षलालजी स्वामी ने मुझे साधुचर्या का प्रारंभिक प्रशिक्षण दिया। विशेष रूप से रजोहरण बांधना सिखाया। मुनिश्री की शांत जीवन शैली ने मेरे मन को बहुत आकर्षित किया। स्वावलंबिता, निष्कामता आदि गुण मानों आपमें अखूट रूप से भरे हुए थे। आपकी वत्सलता का मुझे उस चातुर्मास में और सन् 2016 के करीब दो महीने में खूब अवसर प्राप्त हुआ। आज सुबह-सुबह मुनिश्री के देवलोक गमन के समाचार सुने तो एक बार विश्वास नहीं हुआ। वर्तमान में आप धर्मसंघ में दीक्षा पर्याय में सबसे ज्येष्ठ थे। 'शासनश्री' मुनि श्री हर्षलालजी स्वामी के प्रयाण पर मैं शत-शत श्रद्धाजंलि अर्पित करता हूं और मंगल कामना करता हूं कि आप शीघ्र लक्षित मंजिल का वरण करें।