प्रज्ञा के अनुत्तर पुरुष - आचार्य महाप्रज्ञ

प्रज्ञा के अनुत्तर पुरुष - आचार्य महाप्रज्ञ

आचार्य श्री महाप्रज्ञ प्रज्ञा पुरुष थे। वे जागृत चेतना के धनी थे। उन्होंने प्रज्ञा-जागरण के महान प्रयोग किये और प्रज्ञा के मंत्रदाता बन गये। उनका मानना था कि इन्द्रिय और मन के श्रम को न्यून कर अतीन्द्रिय चेतना और प्रज्ञा को जगाया जा सकता है। इसका तात्त्विक आधार यह है कि यह क्षयोपशमजन्य और साधनाजन्य है। प्रज्ञा की उपलब्धि मति ज्ञानावरण के विशिष्ट क्षयोपशम से होती है। श्रुताराधना इसमें प्रधान हेतु बनता है। आचार्य श्री महाप्रज्ञ का संपूर्ण जीवन श्रुताराधना का महान निदर्शन है। वे विनय और समर्पण के मूर्त रूप थे। वे अपनी अलौकिक साधना से महामानव ही नहीं, विश्वमानव बन गये। उनकी उत्कृष्ट साधना से प्रभावित होकर आचार्य श्री तुलसी ने उन्हें महाप्रज्ञ अलंकरण प्रदान किया और वह अलंकरण ही उनका नामकरण हो गया। मुनि श्री नथमल और आचार्य श्री महाप्रज्ञ इन दो विशिष्ट नामों से वे विश्व में ख्यात-नामा हो गये, उनका जीवन निरन्तर उत्कर्ष की ओर बढ़ता गया।
आचार्य श्री महाप्रज्ञ मौलिक विचारक और दार्शनिक थे। वे सत्य-संधाता थे। उनमें दृष्टि और आचरण की भरपूर शुचिता थी। उन्होंने अणुव्रत का दर्शन लिखा, प्रेक्षाध्यान साधना पद्धति का आविष्कार किया, मूल्यपरक शिक्षा के रूप में जीवन विज्ञान को प्रस्तुत किया, आगम-संपादन का महनीय कार्य किया और अहिंसा समवाय का विचार रखा। उनके इन महत्त्वपूर्ण कार्यों से उनका यश: काय बहुत शक्तिशाली बना। उनके अंतिम दशक में की गयी अहिंसा यात्रा ने उनके व्यक्तित्व और कर्तृत्व को बहुत यशस्वी बना दिया। उनके जादुई प्रवचनों ने लोगों के दिलो-दिमाग को आनंद से सराबोर कर दिया। हिन्दू और मुस्लिम समाज को वे देवदूत की तरह प्रतीत होने लगे। उनके विराट व्यक्तित्व से प्रभावित होकर स्वामी अवधेशानन्द गिरी ने लिखा- युगपुरुष आचार्य श्री महाप्रज्ञ दर्शनीय ही नहीं अपितु अत्यन्त महनीय भी थे। ऐसा लगा मानो भगवत्ता धरा पर आविर्भूत हुई है।
आचार्य श्री महाप्रज्ञ के विचारों की मुक्त कंठ से सराहना हुई है। मुझे एक योगी मिले थे। आध्यात्मिक संवाद चल रहा था, उन्होंने भाव विभोर स्वर में कहा - 'महावीर और महाप्रज्ञ इस धरा पर बार-बार जन्म नहीं लेते हैं।' मैं दिल्ली में अटल बिहारी वाजपेयी से बात कर रहा था। वे आचार्य श्री महाप्रज्ञ के साहित्य के अच्छे पाठक रहे हैं। वार्ता के दौरान उन्होंने भावुक होकर कहा-'मैं आचार्य महाप्रज्ञ के साहित्य का लोहा मानता हूं। समस्या का समाधान देने वाला महामानव और महागुरु होता है। आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने बहुत हृदयस्पर्शी समाधान दिये हैं। कहा जाता है कि उनका एक प्रवचन पाठक या श्रोता के जीवन की दिशा को बदलने में समर्थ है। उनका ज्ञान बहुत व्यापक और निर्मल था। वे समस्या की जड़ को पकड़ना जानते थे। उनके विचार सार्वभौम समाधानदायक हैं। नौ दशक का प्रलम्ब जीवन और आठ दशक का संयम जीवन जीकर उन्होंने संसार को अमृतपान कराया है, जो अध्यात्म जगत की एक अद्भुत मिसाल है। वे ज्ञाता द्रष्टा भाव में रहने वाले महायोगी थे तथा समाधि एवं एकाग्रता के सफलतम निदर्शन थे। यों लगता था कि वे सदा ध्यान और भाव क्रिया में ही रहते थे। उनकी ढेर सारी विशेषताओं से प्रभावित होकर अणुव्रत प्रवर्तक आचार्य श्री तुलसी ने कहा था कि जीने की कला सीखनी हो तो महाप्रज्ञजी से सीखो।
आचार्य श्री महाप्रज्ञ का वाङ्गमय विशाल और युगीन है। युग को नयी दृष्टि देने वाला है। जीवन में दृष्टि दान और चक्षु दान सबसे बड़ा है। वे सही अर्थों में चक्षुदाता थे। वे महान तत्त्ववेत्ता थे तथा सुकरात और आइंस्टीन की तरह सुप्रतिष्ठित थे। सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री यशपाल जैन के शब्दों में- 'आचार्य श्री महाप्रज्ञजी विद्वान थे पर उनमें विद्वत्ता का भार नहीं था।' उनमें आवेश, अभिमान आदि निषेधात्मक भाव क्षीण-प्राय: हो चुके थे। जैसे वीतरागता आने पर ही केवलज्ञान प्रकट होता है वैसे ही उपशम की साधना होने पर ही विशिष्ट मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का प्रादुर्भाव होता है। मति-श्रुत की निर्मलता भी व्यक्ति को अलौकिक आनन्द से भर देती है तथा ज्ञान के नए क्षितिज उद्घाटित कर देती है। आचार्य श्री महाप्रज्ञ का मति और श्रुत ज्ञान बहुत निर्मल था। उन्हें ज्योतिर्भूत कहा जा सकता है। उनके कुछ विचारों को यहां बिन्दु रूप में प्रस्तुत करना चाहता हूं -
● राग और द्वेष कर्म के बीज हैं। राग होने पर द्वेष अवश्य होता है। व्यक्ति पहले वीतद्वेष बनता है और फिर वीतराग। इस तरह वीतरागता हमारा ध्येय बन जाता है। आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने कहा कि राग और देष में जन्य-जनक भाव है। राग होने पर ही द्वेष की उत्पत्ति होती है अत: राग को ही मिटाना है। राग को पहचानना ही कठिन है फिर मिटाना कितना कठिन हो जाता है।
● तपस्या के बारह प्रकार हैं। उपवास से निर्जरा होती है, किंतु उपवास से जो निर्जरा होती है, उससे कहीं ज्यादा निर्जरा स्वाध्याय और ध्यान से होती है। अगर प्रतिसंलीनता का अभ्यास करें तो भारी निर्जरा होती है। निर्जरा आत्म-शोधन है और उसे बढाने का यह श्रेष्ठ मार्ग है। प्रतिक्षण प्रतिसंलीनता में रहना जीवन की सर्वोच्च सफलता है।
सुख, शान्ति और सुविधा को भिन्न-भिन्न मानना चाहिए। वर्तमान युग सुख का नहीं, सुविधा का युग है। इस सुविधावादी युग में सुख की खोज की जा रही है, लेकिन सुख मिल नहीं रहा है। कारण यही है कि ज्ञान और श्रद्धा का समन्वय नहीं है। श्रद्धा और ज्ञान - इन दोनों का योग है शान्ति। जहां शान्ति है, वहां सुख है और जहां सुख है, वहां शान्ति है। ● जीवन का लक्ष्य पैसा नहीं, मोक्ष होना चाहिये। लक्ष्य युक्त जीवन ही जीवन है। शान्ति, संतोष, पवित्रता और आनन्द के बिना जीवन की सरसता कहां? जीवन का साध्य अनुत्तर रहे। मोक्ष जीवन का अनुत्तर लक्ष्य है। आस्तिकता का मार्ग बहुत कठिन है। आत्मा और ईश्वर, पूर्वजन्म और पुनर्जन्म, कर्म और कर्मफल को सिद्ध करना कठिन है। सिद्ध करने के लिये बहुत बुद्धि और चिन्तन चाहिये।
● निमित्तदर्शी नहीं, उपादानदर्शी बनो। उपादान को देखना आध्यात्मिक विकास है। (शेष पेज 12 पर)