मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भाव है उत्थान का मार्ग : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भाव है उत्थान का मार्ग : आचार्यश्री महाश्रमण

साधिक 13 मास का महाराष्ट्र प्रवास सम्पन्नता की ओर, साक्री में आयोजित हुआ महाराष्ट्र स्तरीय मंगल भावना समारोह
महाराष्ट्र को मिला धर्मोदय, अध्यात्मोदय, ज्ञानोदय, दर्शनोदय, चारित्रोदय और विकास का पावन आशीष

साक्री, 30 जून, 2024
महाराष्ट्र की यात्रा के अंतर्गत ज्योतिपुंज आचार्यश्री महाश्रमणजी साक्री पधारे। धर्म दिवाकर ने मंगल देशना प्रदान कराते हुए फरमाया कि आदमी के जीवन में अनेक वृत्तियां होती हैं। जो वीतराग या साधु नहीं हैं, सामान्य आदमी हैं उनमें राग और द्वेष के भाव भी उभर सकते हैं। अनुकूल-मनोज्ञ परिस्थिति में राग का व प्रतिकूल स्थिति में द्वेष का भाव उत्पन्न हो सकता है, अन्तराल में रहने वाला मध्यस्थ होता है। चार अनुप्रेक्षाएं बताई गई हैं- मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ। उपाध्याय विनयविजयजी का संस्कृत भाषा का ग्रन्थ है- शांत सुधारस। उसमें सोलह भावनाओं का उल्लेख मिलता है। मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ - ये चार भावनाएं अहिंसा और समता से जुड़ी हुई हैं। हमारे व्यवहार को परिष्कृत करने में ये सहयोगी बन सकती हैं।
मैत्री भावना से चित्त सुवासित होता है। सब प्राणियों के प्रति मैत्री की भावना, मैत्री का अनुभव होना बहुत ऊंची बात है। जिनशासन में वह ज्ञान है जिससे आदमी राग से विराग की ओर आगे बढ़ता है, कल्याणों में अनुरक्त हो जाता है, उसका चित्त मैत्री से भावित हो जाता है, वह ज्ञान अध्यात्म का ज्ञान है। दुनिया के सब प्राणियों के साथ मेरी मैत्री है यह भावना चेतना की शुद्धि का उपाय है। गुणी, रत्नाधिक के प्रति विनय रखना, ईर्ष्या में नहीं जाना, इन प्रमोद भावनाओं से भी आत्मा अच्छी रहती है। जो पापों में रत हैं, दीन-हीन अज्ञानी लोग हैं, दुःखी हैं, हिंसा आदि में लगे हैं, उनके प्रति भी करुणा की, उनके उद्धार की भावना होना, धार्मिक, आध्यात्मिक सहयोग करना भी कारुण्य भाव है। जो विपरीत आचरण करने वाले हैं, हितोपदेश भी मानने वाले नहीं हैं तो उनके प्रति मध्यस्थ भावना रखें। हम अपनी शांति में रहें, उनको लेकर दुःखी नहीं बने। अर्हत भगवान भी उपदेश दे सकते हैं, पर सबको अच्छा बना ही देंगे यह बात कठिन है।
मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ ये चार अनुप्रेक्षाएँ हैं जो हमारे व्यवहार की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण हैं और हमारी आत्मा को हल्का, निर्मल बनाने वाली हैं। जहां राग और द्वेष है, वह तो पतन का मार्ग है। मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, वीतरागता व समता की साधना उत्थान का मार्ग है। राग-द्वेष विजेता, अर्हत्, जिन जिसके आराध्य देव हैं, वह जैन है। वीतराग जिनेश्वर भगवान के द्वारा बताया गया धर्म जैन धर्म है। जैन धर्म वीतरागता का धर्म है। अहिंसा, संयम, तप और समता राग-द्वेष को कमजोर बनाने वाले हैं। जिसने राग रुपी बीजों को दग्ध कर दिया है, वह अर्हत्-वीतराग होता है।
वीतरागता कसौटी है, जिसके कषाय क्षीण हो गए हैं, उसको जरूर मोक्ष मिलेगा, फिर वह आदमी किसी भी वेष, परिवेष, देश या सम्प्रदाय में हो। कषाय मुक्ति ही मुक्ति का आधार है। कहा गया है कि जिसने मद और मदन को जीत लिया है, शारीरिक-वाचिक-मानसिक विकारों से रहित हो गए हैं, आशा-लालसा निवृत्त हो गई है ऐसे जो मानव हैं, उनके लिए तो यही मोक्ष है। जो अतीत का अनुसन्धान नहीं करते, भविष्य का विचार नहीं करते और वर्तमान में तटस्थ भावों में हैं ऐसे साधक जीवन जीते हुए भी मुक्त हैं। राग-द्वेष जीतने में जो सफल हो गया है, न किसी से दोस्ती, न किसी से बैर, ऐसा कोई साधु होता है, वह बहुत बड़ी बात होती है। वर्तमान में पूर्णतया वीतराग होना असंभव हो सकता है परन्तु वीतरागता के निकट पहुंचा जा सकता है। साधु तो वीतरागता की साधना करे ही, श्रावक-श्राविकाएं और अन्य गृहस्थ
भी इस मनुष्य जीवन में वीतराग बनने की साधना करे। राग-द्वेष को कृश करने का, जीवन को उन्नत बनाने का प्रयास करें। पूज्य प्रवर ने साक्री वासियों को अमृत स्नान कराते हुए भक्ति भावना, सेवा भावना पुष्ट रखने की प्रेरणा प्रदान की।
साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभाजी ने अपने मंगल उद्बोधन में कहा कि आचार्य प्रवर का महाराष्ट्र का प्रवास सार्थक और सुफल प्रवास रहा है। मनोबल, आत्मबल, संकल्पबल, शरीरबल और संघबल से यात्राएं सफल होती हैं। आचार्य प्रवर संघ को गतिशील बना रहे हैं। नये-नये लोग पूज्यप्रवर के सम्पर्क में आते हैं। आप मानव जाति के उत्थान का प्रयास कर रहे हैं। आप एक जनोपकारक आचार्य हैं। आप में कष्ट झेलने का सामर्थ्य है, विपत्ति झेलने वाला ही आगे बढ़ सकता है। परम पूज्य आचार्यप्रवर परोपकार का कार्य करवा रहे हैं और संघ की प्रभावना को बढ़ा रहे हैं।
पूज्यप्रवर के स्वागत में स्थानीय सभाध्यक्ष अनिल कांकरिया एवं स्थानकवासी श्रीसंघ से राजेन्द्र संचेती ने अपने उद्गार व्यक्त किए। सुश्री मित्तल कांकरिया ने पूज्यप्रवर के समक्ष वैराग्यपूर्ण भावना व्यक्त की। पूज्यप्रवर ने सुश्री मित्तल कांकरिया को मुमुक्षु रूप में साधना करने की स्वीकृति प्रदान करवाई। तेरापंथ महिला मंडल, तेरापंथ युवक परिषद्, तेरापंथ कन्या मंडल, बुआ-बहनों ने पृथक-पृथक गीत का संगान किया। ज्ञानशाला की सुन्दर प्रस्तुति हुई। आरएसएस से शुभम गौड़ ने अपने विचार व्यक्त किए। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री द्वारा महाराष्ट्र स्तरीय मंगलभावना समारोह के संदर्भ में प्रेषित पत्र का वाचन महावीर कांकरिया ने किया। मंगल भावना समारोह में साध्वी प्रज्ञाश्रीजी ने अपने विचार व्यक्त कर सहवर्ती साध्वी वृन्द के साथ गीत का संगान किया। तेरापंथ महिला मंडल साक्री की अध्यक्षा सुरेखा कर्णावट, तेरापंथ युवक परिषद अध्यक्ष पीयुष कर्णावट, महाराष्ट्र विधानसभा के पूर्व स्पीकर अरुण भाई गुजराती, विधायक मंजुला गावित, धुलिया सभापति चंद्रहास चौपड़ा, दिलीप घोष, मुम्बई के प्रतिनिधि मनोहर गोखरु, पश्चिम महाराष्ट्र से मनोज संकलेचा, मराठवाड़ा से सुभाष नहार, खान्देश की ओर से नानक तनेजा ने अपने हृदयोद्गार व्यक्त किए।
मंगलभावना के अवसर पर पूज्यप्रवर ने फ़रमाया- महाराष्ट्र में साधिक तेरस मास का यह प्रवास हुआ है। आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी ने महाराष्ट्र में प्रवास और विचरण किया था। गुरुदेव तुलसी का भी प्रवास हुआ था। इस बार कुछ अंशों में गुरुदेव तुलसी का अनुकरण हो गया, मानो शिष्य गुरु के पद्चिन्हों पर चला हो। गुरुदेव तुलसी ने विक्रम सम्वत 2011 में मुंबई में चातुर्मास किया था, मर्यादा महोत्सव भी किया और उसके बाद संभवतः पूना, औरंगाबाद पधारे थे, वही क्रम इस बार बन गया। कोंकण, लोणार आदि कुछ क्षेत्र हमारे बढ़ गए। लोगों ने अपना दायित्व निभाया, व्यवस्थाएं संभाली, प्रस्तुतियां दी। यात्रा के प्रवास का आधे से ज्यादा हिस्सा तो वृहत्तर मुंबई में ही हुआ। साक्री में यह मंगलभावना समारोह हो रहा है। महाराष्ट्र से विदाई का समय आ रहा है। महाराष्ट्र के लोगों में धार्मिक भावना बनी रहे। महाराष्ट्र के लोगों में धार्मिक चेतना, सद्धभावना, नैतिकता, नशामुक्ति के भाव बने रहें। महाराष्ट्र में धर्मोदय, अध्यात्मोदय, ज्ञानोदय, दर्शनोदय, चारित्रोदय और विकास होता रहे। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।