योगी और अभोगी आदमी संसार व जन्म-मरण की परम्परा से हो जाता है विप्रमुक्त : आचार्यश्री महाश्रमण
जन-जन के उन्नायक परम पावन आचार्यश्री महाश्रमणजी खान्देश के धुलिया में पधारे। महामनीषी ने आगम वाणी का रसपान कराते हुए फरमाया कि जैसे मक्खी श्लेष्म में चिपक जाती है, वैसे ही भोगासक्त व्यक्ति की आत्मा कर्मों का बन्ध कर लेती है। तीन शब्द हैं- योग, रोग और भोग। आसन-प्राणायाम आदि के सन्दर्भ में भी योग होता है और अध्यात्म-धर्म की साधना भी योग होती है। ध्यान, प्रतिसंलीनता की साधना भी योग है। पांच महाव्रत, सम्यग् ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यग् चारित्र की साधना-आराधना करना बहुत बड़ा योग है। जप-स्वाध्याय भी योग है। संक्षेप में कहा गया- मोक्ष का जो ज्ञान, दर्शन, चारित्रात्मक उपाय है, वह योग है।
हमें मानव जीवन प्राप्त है, इसमें योग अथवा अध्यात्म की साधना करना बहुत आवश्यक और बहुत लाभदायी है। पंचम गुणस्थान वाले तिर्यंच पशु भी योग साधना कर सकते हैं। देवताओं में भी एक सीमा में योग साधना हो सकती है। परन्तु धर्म की जो उत्कृष्ट साधना मनुष्य भव में की जा सकती है वह अन्यत्र संभव नहीं है। हमें मानव जीवन उपलब्ध है, उपलब्ध का अच्छा उपयोग करना चाहिये। जो आदमी शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श में राग भाव से लिप्त होता है वह भोगी होता है, कर्मों का बन्ध कर लेता है और संसार में भ्रमण करता रहता है। योगी और अभोगी आदमी संसार व जन्म-मरण की परम्परा से विप्रमुक्त हो जाता है।
जैन हो या अजैन जिसके जीवन में योग या धर्म है, उसका कल्याण अवश्य होगा। आदमी भोगों का संयम रखे, इच्छाओं और परिग्रह की सीमा रखे। श्रावक के बारह व्रतों में पांचवां व्रत है इच्छा परिमाण व्रत और सातवां व्रत है भोगोपभोग परिमाण व्रत। पदार्थ बहुत हैं पर व्यक्ति अपना संयम रखे। आदमी की इच्छाएं असीमित हैं पर आवश्यकता थोड़ी है। इच्छा और आवश्यकता में संतुलन रहना चाहिए। इच्छा और दुःख का संयोग है, इच्छा कारण है, दुःख कार्य है। अतिभोग से कहीं कोई रोग भी पैदा हो सकता है। व्यक्ति योग साधना करे, भोगों का संयम करे। किए हुए कर्मों से छुटकारा नहीं मिल सकता है, उन्हें भोगना ही पड़ता है, पर उनमें भी समता का भाव रखें। समस्या आ भी जाए तो उसके निराकरण का प्रयास करें, उसके साथ मैत्री कर लें, समस्या हमें बाधित न कर पाए। बुढ़ापा आने पर भी कई बार व्यक्ति सक्रिय रह सकता है। हम योग साधना के प्रति जागरूक रहें। गृहस्थ जीवन में भी धर्म की साधना, अध्यात्म की आराधना करने का प्रयास करें। चित्त में समाधि रहे, दूसरों की भी जितनी हो सके धार्मिक-आध्यात्मिक सेवा करते हुए मानव जीवन को सफल-सुफल बनाने का प्रयास करें।
साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभाजी ने अपने उद्बोधन में कहा कि जो व्यक्ति अपने आपको जानने, समझने लग जाता है, वह व्यक्ति सुख को प्राप्त कर लेता है। व्यक्ति की इन्द्रियां बाह्य जगत से अधिक सम्पर्क करती है। इस कारण वह दूसरों को देखता रहता है। दूसरों के दोषों को देखने वाला बड़ी-बड़ी विपत्तियों को प्राप्त कर लेता है। हम अपनी आत्मा को देखने का प्रयास करें। संसारपक्ष में धुलिया से संबद्ध साध्वी सुयशप्रभाजी एवं साध्वी सौरभप्रभाजी ने अपनी जन्मभूमि में आचार्यप्रवर के स्वागत में अभिव्यक्ति दी। पूज्यवर के स्वागत में स्थानीय सभाध्यक्ष नानक तनेजा, सूरजमल सूर्या, तेरापंथ महिला मंडल अध्यक्षा संगीता वेदमुथा, विद्यावर्धिनी महाविद्यालय की ओर से चेयरमैन अक्षय छाजेड़ ने अपने उद्गार व्यक्त किए। अहिंसा इंटरनेशनल स्कूल दोंडाइचा के विद्यार्थियों ने अणुव्रत गीत का संगान किया एवं स्कूल के मिहिर कुंवर व वंशिका शर्मा ने अपने भावों की अभिव्यक्ति दी। तेरापंथ समाज, धुलिया ने नाटिका प्रस्तुत की एवं धुलिया की बेटियों ने गीत का संगान किया। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।