स्वयं की आत्मा को न बनने दें दुरात्मा : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

स्वयं की आत्मा को न बनने दें दुरात्मा : आचार्यश्री महाश्रमण

तीर्थंकर के प्रतिनिधि आचार्यश्री महाश्रमणजी ने मंगल प्रेरणा प्रदान कराते हुए फरमाया कि हमारी दुनिया में अनन्त-अनन्त आत्माएं हैं। उन आत्माओं को चार भागों में बांटा जा सकता है- परमात्मा, महात्मा, सदात्मा और दुरात्मा। परमात्मा वे आत्माएं हैं जो मोक्ष में जा चुकी हैं, सिद्धत्व को प्राप्त हो चुकी हैं। जो केवली हो गए हैं, उनको भी परमात्मा माना जा सकता है। संसार में जो उच्च कोटि की आत्माएं हैं वे महात्मा हैं। छठे गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान के सारे जीव एक दृष्टि से साधु हैं, महात्मा हैं। जो साधु तो नहीं है, पर साधु के सिवाय जितने भी सम्यक् दृष्टि जीव हैं, व्यवहार में जो लोग सज्जन हैं, वे सदात्मा हैं। तात्विक दृष्टि से जो पहले गुणस्थान में हैं, वे सब दुरात्मा हैं। हत्या-डकैती करने वाले मनुष्य दुरात्मा की कोटि में लिए जा सकते हैं।
महात्मा बनना सबके लिए संभव नहीं है। धन्य हैं वे जो साधु बन गए हैं। जो महात्मा हैं उनके मन, वचन और शरीर में एकता का दर्शन होता है। जिनके मन में कुछ, वाणी में कुछ और करणी में कुछ है, कथनी-करनी में अन्तर है, वे दुरात्मा लोग हैं। गृहस्थों में दो प्रकार के मनुष्य - सदात्मा और दुरात्मा हो सकते हैं। दुर्जन विद्या का दुरुपयोग करता है, विवाद करता है तो सज्जन उसी विद्या या ज्ञान को दूसरों को बांटने का प्रयास करता है। दुर्जन के पास धन है तो वह धन उसके अहंकार का कारण बन जाता है। सज्जन आदमी के पास धन है, तो वह उसका दान करता है। दुर्जन के पास शक्ति है तो वह दूसरों को दुःख देने वाला बन जाता है वहीं सज्जन अपनी शक्ति का उपयोग दूसरों की रक्षा करने में करता है।
शास्त्रकार ने कहा है कि कंठ छेदन करने वाला दुश्मन भी उतना नुकसान नहीं करता, जितना नुकसान खुद की दुरात्मा बनी हुई आत्मा करती है। गला काटने वाला तो एक जीवन का नाश करता है, पर खुद की आत्मा यदि दुरात्मा बन जाए तो कई जन्मों तक परिभ्रमण कराने वाली, कष्ट देने वाली बन सकती है। जब मौत निकट दिखने लगती है, तब आदमी पश्चाताप करता है कि अरे! मैंने इतने पाप किए, धर्म तो किया नहीं, अब मेरा क्या होगा? अब मुझे नरक में जाना होगा। जो दयाविहीन, धर्म न करने वाला, पापाचरण करने वाला होता है, वह इस प्रकार पश्चाताप करता है। अपनी आत्मा को दुरात्मा नहीं बनने दें, सज्जन बनें। दुर्जन नहीं बनना चाहिए और न ही दुर्जन की संगति में रहना चाहिए। गृहस्थों में भी त्यागी, प्रत्याख्यानी, मन में दया-अहिंसा की भावना रखने वाले, अच्छा विचार रखने वाले व्यक्ति भी मिलते हैं। आदमी अच्छा बने, अणुव्रत के नियम, ध्यान की साधना से भी आदमी की आत्मा निर्मलता को प्राप्त हो सकती है।
हम भगवान महावीर के आराधक हैं, पर ऐसे महापुरुष तो पूरी दुनिया के रत्न हैं, सबके लिए कल्याणकारी हैं। उनके संदेश मानव मात्र के लिए कल्याणकारी हैं। उनकी उत्तरवर्ती आचार्य परंपरा में आचार्य भिक्षु हुए। उनका ज्ञान, सिद्धांत और आचार पक्ष विशिष्ट था। नवमेें गुरु आचार्य श्री तुलसी और दसवें गुरु आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी, दोनों गुरु खान्देश में पधारे थे, हमारा भी आना हो गया। कई क्षेत्रों में जाना हो गया, कई क्षेत्रों की संभावना है और कुछ शेष भी रह गए। यहां धर्म की जागरणा रहे। पूज्यवर के स्वागत में सतीष ओस्तवाल, विद्यालय के चेयरमैन मधुकर राव पाटिल, शहादा सभाध्यक्ष कैलाश संचेती, आंचलिक प्रभारी ऋषभ गेलड़ा ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। स्थानीय बहू मंडल, तेरापंथ महिला मंडल शहादा ने गीत का संगान किया। ज्ञानशाला ज्ञानार्थियों की सुन्दर प्रस्तुति हुई। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।