गुरुदेव श्री तुलसी के जीवन से प्राप्त करें आध्यात्मिक विकास की प्रेरणा : आचार्यश्री महाश्रमण
आषाढ़ कृष्णा तृतीया, गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी की 28वीं वार्षिक पुण्य तिथि के अवसर पर गुरुदेव तुलसी के परम्पर पट्टधर विशद चरित्र के धनी आचार्यश्री महाश्रमणजी ने भावांजलि अर्पित करते हुए फरमाया कि एक आदमी समरांगण में दस लाख योद्धाओं को जीत लेता है, एक आदमी केवल अपनी आत्मा को जीतता है। शास्त्रकार ने बताया है एक जो अपनी आत्मा को जीतता है, उसकी परम जय होती है। यह अध्यात्म का समरांगण है, जिसमें दूसरों को जीतने की अपेक्षा नहीं केवल अपनी आत्मा को जीतने की बात होती है।
साधु बनना एक प्रकार से अध्यात्म समरांगण में मानो प्रविष्ट हो जाना हो जाता है और एक प्रकार से योद्धा बनने की स्थिति के निर्माण की प्रक्रिया संभवतः शुरू हो जाती है। जीवन में सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान युक्त चारित्र का आना बहुत बड़ी उपलब्धि होती है। आज आषाढ़ कृष्णा तृतीया है, परम वंदनीय गुरुदेव आचार्यश्री तुलसी का 28वां महाप्रयाण दिवस है। 27 वर्ष पूर्व गंगाशहर के तेरापंथ न्यास वाले भवन में गुरुदेव श्री तुलसी ने अपने जीवन के 83वें वर्ष में अंतिम सांस ली थी।
गुरुदेव तुलसी के जीवन प्रसंगों उल्लेख करते हुए पूज्यप्रवर ने फरमाया कि लोग जब पूछते की पूजी महाराज की उम्र कितनी है? तब मंत्री मुनि मगनलालजी स्वामी फरमाया करते थे कि पूजी महाराज 82 वर्ष के हैं। 60 वर्ष कालूगणी के अनुभव के और 22 वर्ष खुद के, इस प्रकार पूजी महाराज 82 वर्ष के हैं। बाद में वह बात एक अन्य रूप में सत्य हो गयी कि गुरुदेव तुलसी 83 वर्ष पार नहीं कर पाए। गुरुदेव तुलसी ने जब 83वें वर्ष में प्रवेश किया था तब फ़रमाया था - '82 वर्ष तो मंत्री मुनि के कथन अनुसार हो गए, अब जो आगे आएंगे वो मेरे।'
हमारे धर्मसंघ में सबसे कम उम्र (लगभग 22 वर्ष) में युवाचार्य और आचार्य बनने वाले आचार्य तुलसी थे। सबसे लम्बा आचार्य काल भी हमारे धर्मसंघ में गुरुदेव तुलसी का था, लगभग 57 वर्ष के आस-पास रहा। बाद में गणाधिपति के रूप में रहे थे। इस माने में वे हमारे धर्मसंघ में कीर्तिमान आचार्य थे। उन्होंने सुदूर क्षेत्रों की पद यात्रा की। दक्षिण भारत और कोलकाता पधारने वाले प्रथम आचार्य गुरुदेव तुलसी थे। उन्होंने अपने आचार्यकाल में नये-नये उन्मेष धर्मसंघ को प्रदान किये थे, महाश्रमण और महाश्रमणी पद की स्थापना की थी। युवाचार्य के रहते हुए अन्य किसी को महाश्रमण पद देना विशेष बात है। गुरुदेव तुलसी ने मुझे (मुनि मुदित को) अपने श्रीमुख से महाश्रमण के पद पर बिठाया था। पहले युवाचार्य महाप्रज्ञ का अंतरंग सहयोगी भी घोषित किया था। पूर्ववर्ती किसी आचार्य ने इस रूप में ऐसा निर्णय नहीं किया होगा।
आचार्य श्री तुलसी का बाह्य व्यक्तित्व भी आकर्षक था। उनके पूर्व जन्मों की कोई तपस्या रही होगी कि उन्होंने इस प्रकार के गौरवपूर्ण स्थान को प्राप्त किया था। नए उन्मेषों में अणुव्रत, प्रेक्षाध्यान, जीवन विज्ञान और फिर समण श्रेणी की स्थापना उनके आचार्य काल में हुयी। तेरापंथ शासन में तो पहला कार्य था कि युवाचार्य महाप्रज्ञजी को आचार्य पद पर स्थापित कर दिया था, अपने आचार्य पद का विसर्जन कर दिया। अपने सामने भावी को वर्तमान बना दिया। इसकी पृष्ठभूमि में कोई कारण रहा होगा। कारण अन्तर में गुप्त होता है, कार्य सामने स्पष्ट होता है। उन्होंने सत्ता का त्याग किया और अपने सामने विधिवत आचार्य महाप्रज्ञ जी को अभिषिक्त कर दिया।
आचार्यश्री तुलसी सक्रिय और पुरुषार्थी व्यक्ति रहे। वे मानो जनता के आदमी थे, ग्रामीण जनता से भी बात कर लेते, राजनेताओं से भी बात कर लेते। कितने राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री उनके उपपात में आते थे। अनेक लोक कल्याणकारी कार्यों का प्रादुर्भाव उनके आचार्य काल में हुआ। शिक्षा के क्षेत्र में जैन विश्व भारती, पारमार्थिक शिक्षण संस्था आदि की भी स्थापना हुई। पारमार्थिक शिक्षण संस्था आज मुमुक्षुओं का आश्रय स्थल बनी हुई है। वि.सं. 2054 का चातुर्मास गंगाशहर में घोषित था पर चतुर्मास लगा ही नहीं और चातुर्मास लगने से पहले ही आज के दिन उनका महाप्रयाण हो गया। लाडनूं उनका जन्मस्थान और गंगाशहर में उनका समाधि स्थल नैतिकता का शक्ति पीठ है। गुरुदेव तुलसी के जीवन से हमें प्रेरणाएं मिलती रहे और हम भी धार्मिक, आध्यात्मिक विकास करते रहें।
साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभाजी ने मंगल उद्बोधन प्रदान करते हुए कहा कि महान व्यक्ति वह होता है जिसका व्यक्तित्व अच्छा, कर्तृत्व अच्छा होता है, वक्तृत्व अच्छा होता है और नेतृत्व अच्छा होता है। इन चारों कसौटियों पर गुरुदेव तुलसी का जीवन खरा था। उनका बाह्य व्यक्तित्व सबको आकर्षित करने वाला था। उनका कर्तृत्व भी प्रभावशाली था। तेरापंथ धर्मसंघ को ऊंचाईयों पर पहुंचाया था। उन्होंने जन हित में अणुव्रत आदि अनेक आयाम दिए। जान जान को मानवीयता का पाठ पढ़ाने वाले थे। साधु साध्वियों के निर्माण में भी उन्होंने अपनी शक्ति का नियोजन किया। हिंदी का विकास भी गुरुदेव की ही देन है। साध्वियों की क्षमताओं को अभिव्यक्ति दी। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।