दो-दो महापुरुषों का हाथ मेरे हाथ पर ही नहीं, सिर पर भी था : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

दो-दो महापुरुषों का हाथ मेरे हाथ पर ही नहीं, सिर पर भी था : आचार्यश्री महाश्रमण

अध्यात्म के शिखर पुरुष आचार्यश्री महाश्रमणजी ने पानबारा के शास्त्रीय माध्यमिक आश्रमशाला में पावन प्रेरणा प्रदान करते हुए फरमाया कि इच्छा को आकाश के समान अनन्त बताया गया है। आकाश को मापते-मापते अनन्त जन्म चले जाएं फिर भी आकाश को मापा नहीं जा सकता। जिस प्रकार आकाश का कोई अन्त नहीं है, उसी प्रकार इच्छाओं का भी कोई अंत नहीं है। इसलिए इच्छाओं को आकाश से उपमित किया जा सकता है। इच्छा दो प्रकार की बताई गई है। एक आध्यात्मिक संदर्भ से जुड़ी हुई इच्छा और दूसरी बुरी इच्छा। ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के विकास की इच्छा तो अच्छी है, पर भौतिक इच्छा जो पतन की ओर ले जाने वाली हो, वह त्याज्य होती है। छोटे बालक के मन में अच्छी इच्छा जाग जाए कि मैं साधु बनूंगा तो वह बहुत आगे बढ़ सकता है।
आज आषाढ़ कृष्णा त्रयोदशी है, आज के दिन एक शिशु का प्राकट्य हुआ था। 104 वर्ष पूर्व वि.सं. 1977 में टमकोर गांव में मां बालूजी की कुक्षि से एक बालक का जन्म हुआ। उस बालक के मन में अध्यात्म जगत में जाने की इच्छा जागी। वह जगत था - साधुत्व का संसार। जीवन के ग्यारहवें वर्ष में ही वि.सं. 1987 माघ शुक्ला दशमी को सरदारशहर में उस बालक नथमल की मुनि दीक्षा अनेक दीक्षार्थियों के साथ हो गई, मां-बेटा दोनों दीक्षित हो गए। आचार्य महाप्रज्ञ जी एक बालक के रूप में परम पूज्य कालूगणी के पास दीक्षित हुए। विकास की गति अच्छी हुई और वे अपने मुनि जीवन में एक विद्वान संत के रूप में प्रतिष्ठित हो गए। एक दार्शनिक मुनि के रूप में उनका नाम था। विद्या की आराधना में उनका बहुत अच्छा क्रम था। कालूगणी के युग में तो वे थोड़े वर्षों तक रहे, आचार्य तुलसी के युग में वे लम्बे काल तक रहे थे। तुलसी युग में उनका अनेक रूपों में विकास हुआ था।
ज्ञान के क्षेत्र में उन्होंने एक प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त किया था। वे प्राय: गुरुकुल वास में अधिक रहे थे। न्यारा में केवल दो ही चातुर्मास, एक सरदारशहर और एक दिल्ली में किए थे। युवाचार्य काल में चातुर्मास गुरुदेव श्री तुलसी के साथ और आचार्य बनने के बाद भी गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी के साथ ही हुए। गुरुकुलवास और पूरे धर्मसंघ में उनका एक प्रतिष्ठित स्थान था। विद्वता के क्षेत्र में भी उनका नाम था। आचार्य श्री तुलसी ने धर्मसंघ में जो नव उन्मेष लाए उनमें मुनि श्री नथमलजी स्वामी 'टमकोर' का अच्छा योगदान था। आचार्य श्री तुलसी एक साहस युक्त व्यक्तित्व थे, वे निर्णय कर लेते और फिर उस निर्णय को सुसंपादित करने का कार्य मुनि श्री नथमल जी स्वामी करते थे। आचार्य श्री तुलसी ने निकाय व्यवस्था का नया प्रयोग किया और मुनि श्री नथमल जी स्वामी को निकाय सचिव का पद प्रदान किया था। आचार्य महाप्रज्ञ जी अपने मुनिकाल में खड़े होकर भाषण दिया करते थे।
दार्शनिक, बौद्धिक, विद्वान लोगों के मध्य उनका वैदुष्य युक्त भाषण होता। एक बार जनता के बीच उन्होंने भाषण दिया। बाद में एक श्रावक गुरुदेव तुलसी के पास आया और बोला- आज नथमल जी स्वामी का भाषण बहुत बढ़िया हुआ। गुरुदेव ने सोचा कि यह क्या समझा होगा, गुरुदेव ने पूछ लिया- इनकी बात को समझ तो गए न कि क्या कहा था? श्रावक ने कहा समझा तो नहीं पर जब वो बोल रहे थे तब आप सिर हिला रहे थे। मैंने माना कि भाषण बढ़िया दे रहे हैं, तभी गुरुदेव प्रसन्नता से सिर हिला रहे हैं। संभवतः इस घटना से प्रेरित होकर गुरुदेव श्री तुलसी ने उन्हें इंगित किया कि भाषण साधारण जनता के योग्य हो। बाद में उनके भाषण जन भोग्य हो गए। पहले विद्वद जन भोग्य थे बाद में साधारण जन भोग्य हो गए।
संस्कृत भाषा का उनका अच्छा अध्ययन था। कभी-कभी भाषण में थोड़े शब्द ऐसे भी आते होंगे कि हर कोई पकड़ ना पाए। उनके व्यक्तित्व में एक वैदुष्य का दर्शन किया जा सकता था। मर्यादा महोत्सव में साधु-साध्वियों या केवल साध्वियों की गोष्ठी में भी उनका भाषण होता था। केवल साध्वियों की गोष्ठी में भाषण होना विशेष बात है। गुरुदेव तुलसी का उन्हें पूरा प्रोत्साहन मिलता था। हमारे धर्मसंघ में व्यवहार की भूमिका में आचार्यप्रवर द्वारा किसी को प्रतिष्ठापित किया जाता है तो उस साधु या साध्वी को सहयोग मिल जाता है। इसी प्रकार वे हमारे धर्मसंघ में प्रतिष्ठित मुनिश्री के रूप में सामने आ गये थे।