शाश्वत आत्मा के कल्याण के लिए करें धर्म की साधना : आचार्यश्री महाश्रमण
तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशम अधिशास्ता आचार्यश्री महाश्रमणजी आज बारह किलोमीटर का विहार कर कन्या विद्यालय परिसर सामोडे पधारे। मुख्य प्रवचन कार्यक्रम में परम पावन ने पावन प्रेरणा प्रदान कराते हुए फरमाया कि दो प्रकार की विचारधाराएं हैं - एक तत् जीव, तत् शरीरवाद और दूसरी अन्य जीव, अन्य शरीरवाद। तत् जीव, तत् शरीरवाद वाली विचारधारा नास्तिकवाद की विचारधारा है, जहां आत्मा और शरीर को अलग-अलग नहीं माना गया है। अन्य जीव, अन्य शरीर अर्थात् आत्मा अलग है, शरीर अलग है। यह जो भिन्नता की विचारधारा है, भेद विज्ञान की विचारधारा है, यह आस्तिकवाद की विधारधारा है। अध्यात्म की साधना और मुख्यतया अध्यात्म का जगत इस बात पर टिका हुआ है कि आत्मा अलग है, शरीर अलग है। आत्मा शाश्वत, अविनाशी और अमर है, शरीर नश्वर है। इस धारणा की भित्ति पर मानों अध्यात्म का जगत ठहरा हुआ है। जो शरीर हमें दिखाई दे रहा है वह स्थूल औदारिक शरीर है। इसके सिवाय दो शरीर सूक्ष्म और सूक्ष्मतर शरीर हमारे पास हैं। सूक्ष्म शरीर तेजस शरीर और सूक्ष्मतर कार्मण शरीर है। जैन विद्या में पांच शरीर बताए गए हैं- औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस और कार्मण। इन पांचों में से हमारे पास तीन शरीर हैं - औदारिक, तेजस और कार्मण। हमें जो मनुष्य की देह मिली है इसका कारण भी कार्मण शरीर है। सुख-दु:ख का कारण यह कार्मण शरीर ही है।
यह कार्मण शरीर हमारे साथ अनन्त काल से है, यह मोक्ष होने पर ही छूट पाएगा। किस जीव को अगला जन्म कहां लेना है यह नियामकता भी कार्मण शरीर के पास है। मनुष्य और तिर्यंच प्राणियों के औदारिक शरीर होता है। देव और नैरयिक जीवों के वैक्रिय शरीर होता है। इस औदारिक शरीर की विशेषता है कि इससे उदार कार्य हो सकते हैं। मोक्ष की प्राप्ति मनुष्य के इस औदारिक शरीर से ही हो सकती है। केवल मनुष्य को प्राप्त औदारिक शरीर से ही मोक्ष मिल सकता है। आत्मा का पुर्नजन्म होता है। आत्मा अभी भी है, पहले भी कहीं थी, और फिर आगे भी कहीं रहेगी। आत्मा अखंड है। ना इसका कोई विभाजन हो सकता है ना दो आत्माएं कभी साथ में मिल सकती है। एक शरीर में अनन्त जीव हो सकते हैं पर ऐसा नहीं हो सकता कि देह दो हों और जीव एक।
आत्मा शाश्वत है और शरीर अशाश्वत है। व्यक्ति स्वयं से यह प्रश्न करे कि मैं शाश्वत के लिए क्या कर रहा हूं? अशाश्वत के लिए क्या कर रहा हूं? अशाश्वत के लिए व्यक्ति अनेकों काम करता है पर आत्मा के हित के लिए, शाश्वत के लिए, अध्यात्म की साधना, धर्माराधना करनी चाहिए। धर्म का संचय करना चाहिए। धर्म शाश्वत आत्मा का कल्याण करने वाला बन सकता है। गृहस्थ भी धर्म की उत्कृष्ट साधना कर सकते हैं। मरूदेवा माता ने तो बिना दीक्षा ग्रहण किए ही मोक्ष की प्राप्ति कर ली थी। पूज्यप्रवर कालूगणी, गुरुदेव तुलसी और गुरुदेव महाप्रज्ञ जी तीनों की माताओं ने दीक्षा ली थी। पर तेरापंथ धर्मसंघ में एक इतिहास यह भी है कि आचार्यों की माताओं के दीक्षा के संदर्भ में एकमात्र आचार्य श्री तुलसी हुए जिन्होंने स्वयं अपनी माता को दीक्षित किया था। भगवान ऋषभ ने अपनी माता को दीक्षा नहीं दी थी फिर भी गृहस्थ अवस्था में भी मरूदेवा माता ने सिद्धत्व की प्राप्ति कर ली। ऐसा अवसर तो अतिदुर्लभ है, हम शाश्वत आत्मा के कल्याण के लिए धर्म और अध्यात्म की साधना करें।
साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभाजी ने अपने उद्बोधन में कहा कि जो संत होते हैं, वे शीतल होते हैं, शीतलता प्रदान करने वाले होते हैं। इसलिए संत जनों के आस-पास लोगों की भीड़ जमा होती है। लोग संतों को अपने क्षेत्र में बुलाना चाहते हैं। संतजन लोगों को सही मार्ग दिखाते हैं, आध्यात्मिक सुख का खजाना देते हैं जिससे आदमी शीतलता प्राप्त कर सकता है। संतों से ज्ञान प्राप्त होता है। संत तो पारसमणि होते हैं, लोहे को सोना बना देते हैं। हमें भी जीवन को कुन्दन बनाना है। कन्या विद्यालय परिसर की ओर से अध्यापिका मनीषा शिंदे, ब्रह्मकुमारी सुरेखा दीदी, ज्योति गोगड़, दिनेश गोगड़ ने पूज्य प्रवर के स्वागत में अपने उद्गार व्यक्त किए। स्थानीय महिला मंडल, नथमल गोगड़ एवं गोगड़ परिवार की बेटियों ने पृथक-पृथक गीत का संगान किया। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमार जी ने किया।