फौलादी संकल्प के धनी थे आचार्य भिक्षु

फौलादी संकल्प के धनी थे आचार्य भिक्षु

अनुस्रोत गामी बनना आसान है, प्रतिस्त्रोत गामी बनना कठिन ही नहीं महाकठिन है। आचार्य भिक्षु प्रवाह पाती नहीं थे। आचार्य भिक्षु ने पूज्य रघुनाथजी से वि. सं. 1808 में मारवाड़ के बगड़ी नगर में नदी किनारे वटवृक्ष के नीचे दीक्षा स्वीकार की। उस समय पूज्य रघुनाथजी ने अयाचित आशीर्वाद दिया कि इस वटवृक्ष की तरह तेरा विकास हो। भीखणजी ने सोचा मात्र साधु बनने से या वेष परिवर्तन मात्र से इतना बड़ा आशीर्वाद सफल नहीं हो सकता। उसके लिए साधना की आवश्यकता है। वे निरंतर समिति-गुप्ति की आराधना में विशेष जागरूक रहते हुए अध्ययन में लीन बने। उन्होंने आगमों का तलस्पर्शी अध्ययन प्रारंभ कर दिया। आगम पढ़ने से मन में जिज्ञासाओं का ज्वार सा उमड़ आया और आप पूज्य रघुनाथजी की उपासना में उनका समुचित समाधान पाने में तत्पर रहते।
रघुनाथजी भीखणजी की जिज्ञासाओं को सुनकर सोचने लगे- लगता है यह पापभीरु है आज तक हमने इन बातों पर ध्यान नहीं दिया परंतु इसकी जिज्ञासाएं निरर्थक नहीं है। तथ्य भरी जिज्ञासाओं को सुनकर वे अत्यंत प्रसन्न हुए परंतु उनका सही समाधान करने में उन्हें संकोच हुआ क्योंकि उन तथ्यों पर कभी ध्यान ही नहीं दिया तो पालन भी कैसे किया जाये? भीखणजी तटस्थ भाव से अध्ययन में लगे रहे उनकी गुरु के प्रति विनम्रता और साधुचर्या की निर्मलता जन-जन को प्रभावित करने वाली थी। भीखणजी साधना और अध्ययन में आगे बढ़ते रहे इसीलिए वे जन आस्था के आधार बने। राजनगर के लोग आचार्य रघुनाथजी के परम भक्त थे। वहां प्रवासित साधुओं के संपर्क में आने से उन्हें साधुचर्या का सही बोध हुआ और वे वर्तमान में चल रहे शिथिलाचार के कारण अनास्थाशील हो गए। इस बात की जब आचार्य रघुनाथजी को जानकारी मिली तो उन्होंने अपने योग्य शिष्य भीखणजी को उन्हें प्रतिबोध देने के लिए भेजा।
संत भीखणजी का आगमन सुनकर राजनगर के श्रावक अत्यंत प्रसन्न हुए। भीखणजी के प्रवचन उपासना में लोगों का तांता लग गया क्योंकि भीखणजी के प्रति सबके मन में गहरी आस्था थी। एक बार भीखणजी ने वहां के प्रमुख श्रावकों से चर्चा वार्ता की कि आपके यहाँ से यह बात गुरुदेव के पास कैसे गई की राजनगर के श्रावक आस्थाहीन हो गए हैं? श्रावकों ने अपना कथन स्पष्ट करते हुए कहा कि आज शिथिलाचार बढ़ गया है सब साधु-साध्वी अपने-अपने चेले चेली बनाने में, पंगत बढ़ाने में लगे हुए हैं। केवल आगमों की दुहाई देते हैं, क्या आगमानुसार साधुचर्या का पालन होता है? हमें आप पर पूरा विश्वास है आप हमें आगम पढ़कर बतायें, अगर हमारा कथन गलत है तो हम अपनी भूल सुधारेंगे और अगर आप आगम सम्मत साधुचर्या का पालन नहीं करते हैं तो आप अपने को सुधारें ताकि साधुत्व और श्रावकत्व का सही ढंग से पालन हो सके। श्रावकों की बात सुनकर भीखणजी ने दो-दो बार आगम पढ़े और उन्हें लगा कि आगम सम्मत साधुत्व का पालन नहीं हो रहा है। उन्होंने जब गुरुदेव के दर्शन किए तब राजनगर के श्रावकों की सही स्थिति रखते हुए आगम पाठ पर चिंतन करने का निवेदन किया। परंतु रघुनाथजी ने कोई समुचित उत्तर नहीं दिया। दो वर्षों तक गुरु शिष्य की साध्वाचार विषय में चर्चा चलती रही परंतु जब गुरुदेव ने यह कह दिया कि भीखण यह पंचम आरा है इसमें शुद्ध साधुत्व का पालन नहीं हो सकता तब भीखणजी ने चैत्र शुक्ला नवमी वि. सं. 1817 में बगड़ी नगर से अभिनिष्क्रमण किया। उस समय भयंकर विरोध का सामना करना पड़ा। रहने को स्थान और जीवन यापन के लिए आहार पानी भी मिलना कठिन था। परंतु संत भीखणजी के फौलादी संकल्प के कारण आज तेरापंथ का जो रूप खिला है यह सबके लिए प्रेरणा है।
पूरे जैन समाज में एक तेरापंथ धर्म संघ ही ऐसा है जिसमें एक गुरु एक विधान दृष्टि गोचर हो रहा है। इस धर्म संघ की आज एकादशवीं पीढ़ी चल रही है। प्रत्येक आचार्य ने अपनी चिंतन शक्ति से इसे खूब संवारा है। परंतु इसकी मौलिक मान्यताओं में किसी ने परिवर्तन नहीं किया। तेरापंथ की मूल आधार शिला दान-दया है। मिश्र धर्म की इसमें चर्चा ही नहीं है। एक करणी से एक ही काम है। अल्प पाप, बहु निर्जरा को कभी मान्यता नहीं दी। हम तेरापंथी हैं तो हमें अपने सिद्धांतों की जानकारी होनी चाहिए ताकि हम अपनी संस्कृति और संस्कारों की सुरक्षा करते हुए औरों को भी संस्कारी बना सकें। स्थापना दिवस पर आचार्य भिक्षु को शत-शत नमन करता हुआ यह कामना करता हूँ कि हम आपके बताए पथ पर निरंतर गतिमान रहें और अपने जीवन को सफल कर सकें।