कुम्भकार की तरह शिष्य को पात्र बनाता है ‘गुरु’
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़ै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।।
भारतीय साहित्य में गुरु को कुम्भकार की उपमा दी गई है। कुम्भकार का काम बहुत योग्यता व दायित्व भरा होता है। वह कच्ची या अनगढ़ मिट्टी को सुन्दर घट, कलश, दीपक आदि पात्र का आकार देता है, वैसे गुरु भी अनघड़ अबोध शिष्य को ज्ञान, संस्कार, शिक्षा और जीने की कला सिखाकर ऐसा पात्र बना देता है कि वह संसार में श्रेष्ठ बनकर चमकने लगता है। गुरु का स्थान शिक्षक से बहुत ऊंचा है। गुरु, शिष्य का मार्गदर्शक है, वह शिष्य को अपने समान और अपने से भी ऊंचा बनाना चाहता है, जिस प्रकार एक शिल्पकार पत्थर को तराशकर एक सुन्दर देव प्रतिमा का रूप प्रदान करता है। एक दिन वह मूर्ति को अपने से भी अधिक मान-सम्मान पाने योग्य बना देता है। गुरु भी ऐसा महान शिल्पकार है जो निष्काम भाव से शिष्ट रूपी पत्थर को तराशकर हीरा बना देता है।
शिष्य सदा शिष्य ही बना रहे जैन आगमों में कहा गया है कि गुरु तो महान ही है परन्तु शिष्य को भी उन महान गुरु के प्रति सदा विनय और श्रद्धा का भाव रखना चाहिए। शिष्य में श्रद्धा, समर्पण, विनय और उपकार के प्रति कृतज्ञता की भावना होगी तभी वह गुरु का आशीर्वाद प्राप्त कर सकता है। अगर शिष्य केवलज्ञानी बन जाये और गुरु छद्मस्थ रहे, तब भी शिष्य ज्ञान देने वाले गुरु के प्रति विनयशील और समर्पित रहे। योग्य शिष्य ही गुरु का आशीर्वाद प्राप्त कर सकते हैं।
विनय से मिलता है दुर्लभ रहस्यों का ज्ञान महाभारत का युद्ध घोषित हो चुका था। कुरुक्षेत्र में एक ओर पाण्डव सेना के साथ वासुदेव कृष्ण और दूसरी तरफ कौरवों की विशाल सेना और उनके साथ भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, शल्य, कर्ण आदि। धर्मराज युधिष्ठिर अपने भाईयों के साथ युद्ध भूमि में आते हैं तो सामने भीष्म पितामह आदि को देखकर अपने शस्त्र रथ में रखकर नीचे उतरते हैं, अकेले दुर्योधन की सेना की तरफ चल पड़ते हैं। धर्मराज भीष्म पितामह के पास जाकर प्रणाम करते हैं और कहते हैं- पूज्य पितामह! आपके सामने शस्त्र उठाने का समय आ गया है, यह मेरे मन को बहुत अप्रिय लग रहा है। क्या करूं? विवश हूं। आप हमें युद्ध करने की आज्ञा प्रदान कीजिये।
युधिष्ठिर की विनम्रता से पितामह बोले- धर्मराज! तुम वास्तव में धर्मराज हो। मैं तुमसे प्रसन्न हूं। तुमने हमारी गौरवमयी परम्परा को अक्षुण्ण रखा है। यदि तुम इस प्रकार नम्रतापूर्वक मुझसे युद्ध की आज्ञा नहीं लेने आते तो मैं अवश्य ही तुम्हारी पराजय की कामना करता, परन्तु तुम्हारी नम्रता और धर्मशीलता ने मुझे विवश कर दिया, मैं तुम्हें विजयी होने का आशीर्वाद देता हूं।
युधिष्ठिर वहां से द्रोणाचार्य के पास आये और दण्डवत् प्रणाम करके बोले- ‘गुरुदेव! विवश होकर हमें आपसे युद्ध करना पड़ रहा है, आप हमें युद्ध की आज्ञा दीजिये और आशीर्वाद भी।’ द्रोणाचार्य ने भी धर्मराज को विनम्रता से देखकर ‘विजयी भवः’ का आशीर्वाद दिया। इसी प्रकार कृपाचार्य और शल्यराज, जो युधिष्ठिर के मामा भी थे और महारथी कर्ण के सारथी भी, उनसे भी युद्ध की आज्ञा और विजय का आशीर्वाद प्राप्त कर लिया। कृपाचार्य ने भी अपनी मृत्यु का रहस्य युधिष्ठिर को बता दिया और कहा- मैं प्रतिदिन भगवान से तुम्हारी विजय के लिए प्रार्थना करता रहूंगा। इस प्रकार गुरुजनों को प्रणाम करके युधिष्ठिर ने अपनी नम्रता से ही महाभारत का आधा युद्ध जीत लिया। महाभारत का यह प्रसंग गुरुओं से आशीर्वाद और अज्ञेय रहस्य प्राप्त करने का रहस्य खोलता है, वहीं यह भी दर्शाता है कि शिष्य की नम्रता और श्रद्धा भावना पर प्रसन्न होकर गुरु भी ज्ञान का गूढ़तम रहस्य बता देते हैं।
ऋषि वशिष्ठ ने गुरु की महिमा के बारे में कहा है- आत्मा में अनन्त ज्ञान है, अनन्त शक्तियां हैं परन्तु इस ज्ञान और शक्ति को जागृत करने का मार्ग बताने वाले एकमात्र ‘गुरु’ हैं। हम सबको ज्ञात है कि अपना मुंह अपनी आंखों से नहीं दिखाई देता उसके लिए दर्पण की जरूरत पड़ती है, यही स्थिति हमारी आध्यात्मिक जगत से है। अपने दोष, दुर्गुणों को देखने, उनका परिष्कार करने व संस्कारी बनने के लिए गुरु की आवश्यकता पड़ती है। गुरु का अर्थ जिसने स्वयं अपनी आत्मा का परिष्कार किया, अपनी शक्तियों को जगाया।
उपनिषद् में कहा गया है-
‘गुरुपदेशतोज्ञेयं न च शास्त्रार्थकोटिभिः’।
आत्मविद्या का ज्ञान गुरु से ही सीखा जा सकता है, केवल करोड़ों शास्त्र पढ़ने से वह ज्ञान नहीं मिलता।
जैनाचार्यों ने भी कहा है- गुरु जीवनरूपी खलिहान की मेढ़ी है। गुरु सहारा है, आलम्बन है, वृक्ष के आलम्बन से लताएं ऊपर चढ़ती है, इसी प्रकार गुरु का आलम्बन पाकर शिष्य साधनारूपी वृक्ष पर चढ़ता है। कहते हैं- Hard work is like stairs ad Luck is like a lift. Sometimes lift may fail but stairs will always take you to the top without failure.
गुरु भी सीढ़ी की तरह हैं जो हमें सीधा आरोहण कराते हैं। किसी जिज्ञासु ने पूछा- किं दुर्लभम्? तत्त्वज्ञानी ने उत्तर दिया- 'सद्गुरुरस्ति लोके दुर्लभः', अर्थात् इस विश्व में सद्गुरु का मिलना दुर्लभ है। कहा गया है- Millions of stars can't give brightness, they can only sparkle. But one moon can give the brightness. Guru is like the moon to give brightness even in the dark side of our life.
हम बहुत सौभागी है कि हमें गुरु के रूप में भिक्षु स्वामी मिले। आज तेरापंथ धर्मसंघ का जो विशाल वटवृ़क्ष फल-फूल रहा है, वह आचार्य भिक्षु की देन है। आचार्य भिक्षु सूरज की तरह तेजस्वी, चंद्रमा की तरह शीतल, वज्र की तरह कठोर और गुलाब की तरह कोमल थे। आचार्य भिक्षु सत्य के भक्त, रुढ़िवाद के विरोधी, पद-प्रतिष्ठा से दूर, कुशल धर्माचार्य, अनुभवी शासक, स्पष्टवादी, जन उद्धारक आचार्य थे। ऐसी अनेक और विशेषताएं है, जिन्हें शब्दों में समेट नहीं सकते।