धर्म है उत्कृष्ट मंगल

स्वाध्याय

धर्म है उत्कृष्ट मंगल

आवश्यक सूत्र में भी तैंतीस प्रकार की आशातना का उल्लेख है- अर्हतों की आशातना, सिद्धों की आशातना, आचार्यों को आशातना, उपाध्यायों की आशातना, साधुओं की आशातना, साध्वियों की आशातना, श्रावकों की आशातना, श्राविकाओं की आशातना, देवों की आशातना, देवियों की आशातना, इहलोक की आशातना, परलोक की आशातना, केवलि प्रज्ञप्त धर्म की आशातना, देव, मनुष्य और असुरों की आशातना, सर्वप्राण, भूत, जीव व सत्त्वों की आशातना, काल की आशातना, श्रुत की आशातना, श्रुतदेवता की आशातना, वाचनाचार्य की आशातना, आगमपाठ का विपर्यास, मूलपाठ में अन्य पाठ का मिश्रण, अक्षरों की न्यूनता करना, अक्षरों का आधिक्य करना, पदों की न्यूनता करना, विरामरहित पढ़ना, उच्चारण की अमर्यादा, योगरहितता, योग्य को श्रुत न देना, अयोग्य को श्रुत देना, अकाल
में स्वाध्याय करना, उपयुक्त काल में स्वाध्याय न करना, अस्वाध्यायिक में स्वाध्याय करना, स्वाध्यायिक में
स्वाध्याय न करना।
दिगम्बर साहित्य में उल्लिखित तैंतीस आशातना का वर्गीकरण इस प्रकार है- धर्मास्तिकाय आदि पांच अस्तिकाय, छह जीवनिकाय, पांच महाव्रत, आठ प्रवचन माता एवं नौ पदार्थ इन तैंतीस तत्त्वों के प्रति अविनय करना, इन पर श्रद्धा न करना, अन्यथा प्ररूपण करना। वहां आशातना के स्थान पर अत्याशातना (अच्चासणा) का प्रयोग है। आधारभूत श्लोक इस प्रकार है-
पंचेव अत्थिकाया, छज्जीवनिकाय महव्वया।
पवयण माउ पयत्था, तेतीसच्चासणा भणिया।।
चारित्र विनय
चारित्र विनय के पांच प्रकार हैं- सामायिक चारित्र, छेदोपस्थापनीय चारित्र, परिहार विशुद्धि चारित्र, सूक्ष्म संपराय चारित्र, यथाख्यात चारित्र। इस पांच प्रकार के चारित्र के प्रति सम्यक् श्रद्धा व इनका सम्यक् प्रसूपण चारित्रे विनय है।
मन विनय
मन विनय के दो प्रकार हैं- प्रशस्त मन विनय और अप्रशस्त मन विनय। प्रशस्त मन विनय के सात प्रकार हैं-
अपापक (सामान्य रूप से पापवर्जित)।
असावद्य (विशेष रूप से क्रोध आदि रहित) आदि।
अप्रशस्त मन विनय के भी सात प्रकार हैं- पापक, सावद्य आदि।
प्रशस्त मन विनय का अर्थ है अपापक आदि में मन का प्रवर्तन तथा अप्रशस्त मन विनय का अर्थ है पापक आदि से मन का निवर्तन।
वाक् विनय
वाक् विनय के भी दो प्रकार हैं- प्रशस्तवाक् विनय और अप्रशस्त वाक् विनय। इनके भी सात-सात प्रकार हैं। वे मन के प्रकारों की भांति ज्ञातव्य हैं। मन के स्थान पर वाक् अवगन्तव्य है।
काय विनय
काय विनय के दो प्रकार हैं- प्रशस्त काय विनय और अप्रशस्त काय विनय। प्रशस्त काय विनय के सात प्रकार हैं-
आगुप्त (संयम सहित) गमन,
आगुप्त स्थान (ठहरना),
आगुप्त निषीदन (बैठना), आगुप्त त्वक्वर्तन (सोना),
आगुप्त उल्लंघन (द्वार आदि को लांघना),
आगुप्त प्रलंघन (विस्तीर्ण खाई आदि को लांघना),
आगुप्त सर्वेन्द्रिय योग युज्ञ्जनता (सब इंद्रिय व्यापारों का प्रयोग), अप्रशस्त काय विनय के सात प्रकार हैं- वे प्रशस्तकाय विनय की भांति ही ज्ञातव्य हैं। केवल 'आगुप्त' के स्थान पर 'अनागुप्त' (संयम रहित) समझना चाहिए। अप्रशस्त से काय का निवर्तन ही काय-विनय प्रतीत होता है।