करने में विवेक और होने में हो समता : आचार्यश्री महाश्रमण
अध्यात्म जगत के महासूर्य आचार्यश्री महाश्रमणजी का अध्यात्म नगरी सूरत के सिटी लाइट तेरापंथ भवन में अपनी धवल सेना के साथ पावन पदार्पण हुआ। विशाल जन मेदिनी को आर्हत् वांग्मय का रसास्वाद कराते हुए परम पावन आचार्य प्रवर ने फरमाया कि हमारी दुनिया में सुख भी अनुभूत होता है तो दुःख भी देखने को मिलता है। प्रश्न होता है- दु:ख से छुटकारा कैसे प्राप्त हो? हम सुख चाहते हैं, दु:ख से विमुक्त होना चाहते हैं। भगवान महावीर ने अपने शिष्यों से पूछा- सन्तों! प्राणी को भय किससे लगता है? भगवान ने ही समाधान देते हुए फरमाया- प्राणी को दुःख से भय लगता है। पुनः प्रश्न किया कि इस दुःख को किसने पैदा किया? पुनः भगवान ने ही उत्तर देते हुए फरमाया कि जीव स्वयं अपने प्रमाद से दुःखी होता है।
दुःख दो प्रकार का बताया गया है- जरा दुःख और शोक दुःख। शारीरिक दुःख और मानसिक दुःख। रोग, बीमारी आदि शारीरिक कष्ट, प्रिय वियोग, व्यापर में घाटा, कार्याधिक्यता से तनाव, चिंता आदि मानसिक दुःख हो सकते हैं। इन दु:खों से छुटकारा कैसे हो? शास्त्र में बताया गया - हे पुरूष! अपने आप का निग्रह करो। स्वयं का संयम करोगे तो तुम दुःख से मुक्त हो जाओगे। कोई हमें अपशब्द कह दे, यदि हम उसे ग्रहण करते हैं तो हम दुखी बन जाते हैं और उसे ग्रहण न करें तो हम दुःख मुक्त रह सकते हैं। दूसरों के कहने से न कोई साहुकार होता है और न ही कोई चोर होता है। दूसरा निंदा, अपमान कर दे तो भी शांति में रहें। कहा गया है कि जिसके पास क्षमा रूपी शस्त्र है, उसका कोई क्या बिगाड़ सकता है। मैदान में जहां तृण है वहां आग लग सकती है। जहां तृण नहीं वहां आग लगने की संभावना नहीं है। हम अपना संयम, निग्रह रखें तो हम दुःख से मुक्त रह सकते हैं।
'आप भला तो जग भला।' व्यक्ति स्वयं भला रहेगा तो सभी उसके प्रति भले रह सकेंगे और वह दुःखों से दूर भी रह सकेगा। दूसरों को तो हम वश में नहीं कर सकते पर स्वयं का निग्रह तो कर सकते हैं। मनुष्य वाणी और इन्द्रियों का संयम रखे तो दुःखों से मुक्त हो सकता है। कषाय की चेतना, क्रोध, मान, माया, लोभ से दुःख उत्पन्न होता है। जीवन में संतोष रहे, हमारे कषाय शांत हों, उन पर संयम रहे। जितना असद् चिन्तन होता है, वह दुःख उत्पन्न करने वाला हो सकता है। चिन्तन यह रहे- जो हुआ सो अच्छे के लिए हुआ है।
'हुआ और होगा भी जो, वह सब भला नितान्त।
परम शांति के हेतू हैं, ये दो चिन्तन कान्त।।
होना और करना अलग-अलग चीज है। करना विवेक से चाहिए, करने से पहले सोचें, करने के बाद जो होगा उसे स्वीकार करें। करने में विवेक और होने में समता होनी चाहिए।आज सिटी लाइट भवन में आये हैं, यहां आचार्य श्री महाप्रज्ञजी ने सन् 2003 का चतुर्मास किया था। भीतर गुरुदेव तुलसी का फोटो लगा है। चित्र से भी मन पर प्रभाव पड़ सकता है। गुरुदेव तुलसी तो महायात्री थे। गुरुदेव तुलसी ने अणुव्रत की बात बताई - आदमी अच्छा आदमी बने। भारत सरकार के राज्य मंत्री डा. एल मुरुगन आये हैं। राजनीति भी एक सेवा है, राजनीति में शुद्धता, नैतिकता, ईमानदारी बनी रहे। अलोभता से शुद्धता से आ सकती है।
साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभाजी ने कहा कि सिटी लाइट भवन आज भी आचार्यश्री महाप्रज्ञजी के आभावलय से प्रकंम्पित हो रहा है। कल्पवृक्ष, सूर्य और मेघ ये कभी नहीं कहते है कि हम किसी प्रकार उपकार नहीं करेंगे वैसे ही आचार्य प्रवर के पास अखूट खजाना है, जिसे वे लोगों में बांट रहे हैं। आचार्यवर तो महाकल्पवृक्ष, महासूर्य और महामेघ बनकर पधारे हैं। श्रद्धालु जन महाकल्पवृक्ष के समक्ष अपनी इच्छाओं की पूर्ति करें, महासूर्य से अन्तस के कमलों को विकसित करें, महामेघ से आत्मा का सिंचन करें। गत चातुर्मास सूरत में करने वाली साध्वी त्रिशलाकुमारीजी एवं साध्वी मधुबालाजी की सहवर्ती साध्वीजी ने अपनी भावना श्रीचरणों में अभिव्यक्त की। साध्वीवृन्द ने मुमुक्ष रूप में महक मेहता, कल्प मेहता एवं सेजल भंडारी को श्री चरणों में भेंट स्वरूप निवेदन किया। पूज्यवर ने तीनों को मुमुक्षु रूप में साधना करने की आज्ञा प्रदान करवाई। संसदीय राज्य मंत्री डॉ. एल. मुरुगन ने अपनी भावना श्रीचरणों में अभिव्यक्त की।
व्यवस्था समिति के मुख्य ट्रस्टी बाबूलाल भोगर, स्थानीय सभा अध्यक्ष मुकेश बैद, तेयुप से अभिनन्दन गादिया, महिला मंडल से चन्दा भोगर, प्रिंयका श्रीश्रीमाल ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। ज्ञानशाला प्रशिक्षक-प्रशिक्षिकाओं, कन्या मंडल एवं किशोर मंडल ने गीत की प्रस्तुति दी। मुमुक्षु कल्प मेहता एवं सेजल भंडारी ने भी अपनी भावना श्री चरणों में निवेदित की। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमार जी ने किया।