सम्बोधि

स्वाध्याय

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९. योग्यताभेदतो भेदो, धर्मस्याधिकृतो मया।
एक एवान्यथा धर्मः, स्वरूपेण न भिद्यते॥
योग्यता में तारतम्य होने के कारण मैंने धर्म के भेद का निरूपण किया है। स्वरूप की दृष्टि से वह एक है। उसका कोई विभाग नहीं होता।
१०. महाव्रतात्मको धर्मोऽनगाराणां च जायते।
अणुव्रतात्मको धर्मो, जायते गृहमेधिनाम्।।
अनगार के लिए महाव्रत रूप धर्म और गृहस्थ के लिए अणुव्रत रूप धर्म का विधान किया गया है।
सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यग् चारित्र (आचरण) धर्म है। जिसकी दृष्टि सम्यग् हो गई, पर-पदार्थों या मान्यताओं से जो घिरा नहीं है, वह सम्यग् द्रष्टा होता है। सम्यग् ज्ञान भी वहीं होता है और सम्यग् चारित्र की योग्यता भी वहीं होती है। विभाजन योग्यता के आधार पर है। श्रमण और गृहस्थ-दोनों की गति एक ही दिशा की ओर है। किन्तु गति का अंतर है। एक की यात्रा 'जेट विमान' पर होती है और दूसरे की यात्रा 'कार' या 'साइकिल' पर होती है। पहुंचते दोनों है पर पहुंचने के समय में अंतर हो जाता है। महाव्रत की यात्रा जेट विमान की यात्रा है। महाव्रती का मुख संसार से उदासीन होता है और परमात्मा के सम्मुख। बस, वह एकमात्र आत्मा को धुरी मानकर अनवरत उसी दिशा में बढ़ता रहता है। उसकी दृष्टि इधर-उधर नहीं जाती और जाती भी है तो तत्काल वह अपने ध्येय पर उसे पुनः ले आता है। श्रमण होकर फिर जो अपने ध्येय-आत्मदर्शन में अप्रवृत्त रहता है तो समझना चाहिए श्रामण्य केवल बाहर से आया है, भीतर से उत्पन्न नहीं हुआ। गृहस्थ के और उसके जीवन में वेष के अतिरिक्त विशेष अंतर नहीं रहता।
गृहस्थ अनासक्ति और आसक्ति के मध्य गति करता रहता है। वह सर्वथा इन्द्रिय और मन के अनुराग से मुक्त नहीं हुआ है। उसके पैर दोनों दिशाओं में चलते हैं। लेकिन वह जानता है कि मंजिल यह नहीं है। उसे ममत्व से मुक्त होना है। इसलिए वह स्थूल से सूक्ष्म, दृश्य से अदृश्य और भ्रांति से सत्य की तरफ सचेष्ट रहता है।
अनावश्यक वस्तुओं का संग्रह यह व्यक्त करता है कि व्यक्ति भीतर में आसक्त है। आसक्ति के टूटने पर वस्तुओं का संग्रह हो, यह अपेक्षित-सा नहीं लगता। उसके पीछे कोई अन्य कारण हो तो भिन्न बात है। त्याग वही कर सकता है जो आसक्ति से मुक्त है। आसक्त व्यक्ति छोड़कर भी बहुत इकट्ठा कर लेता है।
सामान्य व्यक्ति वस्तुओं को पकड़ते हैं और उन पर राग-द्वेष का आरोपण करते हैं, किन्तु राग-द्वेष पर प्रहार नहीं करते। जब कि मूल है-राग-द्वेष। धर्म की मूल साधना है-समता, राग-द्वेष-मुक्त प्रवृत्ति। यदि धार्मिकों का जीवन राग-द्वेष से मुक्त होता तो निःसंदेह यत् किंचित् मात्रा में सफलता मिलती। लकीर को पीटने से सांप नहीं मरता।
महावीर ने कहा है-परिग्रह-मूर्च्छा आसक्ति है। आसक्ति का त्याग न कर, केवल जिसने घर को छोड़ दिया, वह न मुनि है और न गृहस्थ। कबीर ने कहा है-'आसन मारके बैठा रे योगी आश न मारी जोगी' योगी आसन जमा कर बैठा है किन्तु आशा-आकांक्षा को नहीं मारा।
वस्तुओं का संग्रह आसक्ति से होता है। आसक्त व्यक्ति बाहर से स्वयं को भरने का यत्न करता है। अनासक्त भीतर के रस से आप्लावित होता है। वह बाहर से भरने में कोई सार नहीं देखता। वस्तुओं के प्रति उसके मन में कोई आकर्षण नहीं रहता। वह देखता है-पदार्थ पदार्थ हैं। इनकी उपयोगिता बाहर के लिए है, भीतर के लिए नहीं। ध्रुवीय प्रदेशों में एक एस्किमों परिवार है। धार्मिकों को भी उनसे बहुत कुछ सीखने जैसा है। एक फ्रेंच यात्री पहली बार गया। उसने लिखा है-मैंने उनसे ज्यादा सम्पन्न व्यक्ति नहीं देखे।