श्रमण महावीर
भगवान् का शरीर निर्वस्त्र है। वे आत्मबल और योगबल से उस सर्दी में अप्रकम्प खड़े हैं। उसी समय वहां एक व्यन्तरी आयी। उसका नाम था कटपूतना। भगवान् को देखते ही उसका क्रोध उभर गया। उसने एक परिव्राजिका का रूप धारण किया। बिखरी हुई जटा में जल भरकर उसे भगवान् पर फेंका। भगवान् इस घटना से विचलित नहीं हुए। इस समय भगवान् को लोकावधि (लोकवर्ती समस्त मूर्त द्रव्यों को जानने वाला अतीन्द्रिय) ज्ञान उपलब्ध हुआ। भगवान् महावीर 'अवबाधगति से अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ रहे हैं। उनका पंथ अबाध नहीं है। इस द्वन्द्व की दुनिया में क्या किसी का भी पथ अबाध होता है? जिसकी मंजिल लम्बी है, उसे कहीं समतल मिलता है, कहीं गड्ढे और कहीं पहाड़। पर जिसके पैर मजबूत होते हैं, उसकी गति बाधित नहीं होती। वह उन सबको पार कर जाता है।
साधना के आठवें वर्ष में एक बार संस्कारों ने भयंकर तूफान का रूप धारण कर लिया। यह घटना उस समय की है। जब भगवान् बहुसालक गांव के शालवन उद्यान में ध्यान कर रहे थे। भगवान की जागरूकता से वह तूफान थोड़े में ही शांत हो गया। साधना के ग्वारहवें वर्ष में संस्कारों ने फिर भयंकर आक्रमण किया। यह उनका अन्तिम प्रयत्न था। भगवान संस्कारों पर तीव्र प्रहार कर रहे थे। इसलिए उन्होंने भी अपनी सुरक्षा में सारी शक्ति लगा दी। पेढाल गांव। पेढाल उद्यान। पोलास चैत्य। तीन दिन का उपवास। भगवान शिलापट्ट पर कुछ आगे की ओर झुककर खड़े हैं। कायोत्सर्ग की मुद्रा है। ध्यान की लीनता बढ़ रही है। दोनों हाथ घुटनों को छू रहे हैं। आखें लक्ष्य पर केन्द्रित हैं। रात्रि की वेला है। चारों ओर अंधकार का प्रभुत्व है।
भगवान् को अनुभव हो रहा है कि प्रलयकाल उपस्थित है। धूलि की भीषण वृष्टि हो रही है। शरीर का हर अवयव उससे भर रहा है, दब रहा है। भगवान् घबराये नहीं। धूलि की वर्षा शान्त हो रही है और तीक्ष्ण मुंह वाली चींटियां शरीर को काट रही हैं। भगवान् फिर भी शांत हैं। चींटियां अपना काम पूरा कर जा रही हैं और मच्छरों की आंधी आ रही है। उनका दंश इतना तीक्ष्ण है कि स्थान-स्थान पर लहू के फव्वारे छूट रहे हैं। मच्छर गए। दीमकों का दल-बादल आया। वह गया तो बिच्छुओं की भीड़ उमड़ पड़ी। वह बिखरी, फिर आए नेवले, फिर सांप, फिर चूहे, फिर हाथी और फिर बाघ। पिशाच फिर क्यों पीछे रहते? सब बड़ी तेजी के साथ आए और जैसे आए, वैसे ही विफल होकर चले गए।
संस्कारों ने अकस्मात् अपनी गति बदली। क्रूरता ने करुणा की चादर ओढ़ ली। एक ही क्षण में भगवान् के सामने त्रिशला और सिद्धार्थ उपस्थित हो गए। वे करुण स्वर में बोले, 'कुमार! इस बुढ़ापे में हमें छोड़कर तुम कहां आ गए? चलो, एक बार फिर अपने घर की ओर। देखो, तुम्हारे बिना हमारी कैसी दयनीय दशा हो गयी है? उन्होंने करुणा के तीखे-तीखे बाण फेंके फिर भी भगवान् का मन विंध नहीं पाया। त्रिशला और सिद्धार्थ जैसे ही उस रंगमंच से ओझल हुए, वैसे ही एक अप्सरा वहां उपस्थित हो गई। उसके मोहक हाव-भाव, विलास और विभ्रम जल-ऊर्मी की भांति वातावरण में हल्का-सा प्रकंपन पैदा कर रहे थे। उसकी मंथर गति और मंद-मृदु मुस्कान वायुमण्डल में मादकता भर रही थी। उसके नेउर में घुंघरू बरबस सबका ध्यान अपनी ओर खींच रहे थे। किन्तु भगवान् पर उसके जादू का कोई प्रभाव नहीं हुआ।