
ज्ञान के संचय से संभव है आत्मशुद्धि : आचार्यश्री महाश्रमण
आचार्यश्री महाप्रज्ञजी के पट्टधर आचार्यश्री महाश्रमणजी अपनी धवल सेना के साथ महाप्रज्ञनगर में स्थित नवनिर्मित तेरापंथ भवन में पधारे। आचार्यश्री से मंगलपाठ का श्रवण कर स्थानीय श्रद्धालुओं ने इस नवीन तेरापंथ भवन का लोकार्पण किया।अमृत देशना प्रदान करते हुए महातपस्वी ने फरमाया कि मनुष्य का शरीर औदारिक शरीर होता है। वैसे मनुष्य के पास पाँचों शरीर भी हो सकते हैं। औदारिक शरीर में पाँच इंद्रियाँ होती हैं, जिनमें श्रोत्रेंद्रिय और चक्षुरिंद्रिय का विशेष महत्व है।
नामों की दृष्टि से पाँच इंद्रियों के तीन प्रकार के वर्गीकरण मिलते हैं—
1. स्पर्श, रस, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र
2. श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रस और स्पर्श
3. चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा और काय
इन्द्रियों का क्रम तीन रूपों में प्राप्त हुआ है। पूज्य प्रवर ने फरमाया कि मैंने इस वर्गीकरण का विश्लेषण किया तो मुझे तीन संभावित कारण प्रतीत हुए। पहला संदर्भ है - विकास का क्रम। जीवों में सबसे पहले एकेंद्रिय यानी केवल स्पर्शेंद्रिय होती है। फिर क्रमशः विकास के साथ द्वींद्रिय से लेकर पंचेंद्रिय तक रस, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र का क्रमिक विकास होता है। इसे हम उत्सर्पिणी काल से समझ सकते हैं, जिसमें समय के साथ जीवों की क्षमता बढ़ती जाती है।
दूसरा वर्गीकरण अवसर्पिणी काल के उदाहरण से समझा जा सकता है। इसमें श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रस और स्पर्श के क्रम को देखा जाता है, जो विपरीत दिशा में यानी पाँच इंद्रियों से घटते हुए एकेंद्रिय तक जाता है। यह विकास से ह्रास की ओर बढ़ने वाली प्रक्रिया है।
तीसरे वर्गीकरण में चक्षु इंद्रिय को पहले स्थान पर रखा गया है। पाँच इंद्रियों में चक्षु (आँख) का विशेष महत्व है, क्योंकि देखने से चीजें स्पष्ट होती हैं। ज्ञान की दृष्टि से भी चक्षुरिंद्रिय का महत्व श्रोत्रेंद्रिय से अधिक माना जाता है। श्रोत्रेंद्रिय का भी ज्ञान ग्रहण में महत्वपूर्ण योगदान है। सुनकर भी हम अपार ज्ञान अर्जित कर सकते हैं। हजारों वर्ष पहले लोग सुन-सुनकर ही ज्ञान प्राप्त करते थे। व्यक्ति सुनकर कल्याणकारी और अकल्याणकारी दोनों बातों को जान सकता है। दोनों को समझकर, जो श्रेयस्कर हो, उसे अपनाने से आत्मा का कल्याण संभव है। जनता प्रवचन में बैठकर सामायिक करती है, जिससे उनमें एकाग्रता बढ़ती है, ज्ञान प्राप्त होता है और सांसारिक गतिविधियों से कुछ समय के लिए मुक्ति मिल सकती है। ग्राहक बुद्धि से यदि कोई व्यक्ति वक्ता को सुने, तो वह बोलने की शैली भी सीख सकता है। सुनने से कई बार समस्या या जिज्ञासा का समाधान भी हो जाता है। लगातार बूंद-बूंद की तरह ज्ञान का संचय करने से बुद्धि विकसित होती है और आत्मशुद्धि एवं निर्जरा संभव हो सकती है।
ज्ञान बढ़ाने के लिए हमें अच्छा सुनना, अच्छा देखना, अच्छा बोलना, अच्छा सोचना और अच्छा करना चाहिए। अच्छा देखने से सकारात्मक विचार उत्पन्न होते हैं, जिनका प्रभाव हमारी चेतना पर पड़ता है। अच्छे और बुरे का सही ज्ञान प्राप्त कर, जो श्रेयस्कर हो, उसे अपने जीवन में उतारना चाहिए। जब ऐसा होगा, तब शास्त्रों की वाणी हमारे लिए कल्याणकारी सिद्ध होगी।
साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभाजी ने अपने मंगल उद्बोधन में कहा कि भारत अध्यात्म प्रधान देश है। यहाँ ऋषियों और महर्षियों का सदैव सम्मान किया गया है। सामान्य जन से लेकर बड़े-बड़े पदों पर आसीन व्यक्ति भी आचार्य प्रवर से मार्गदर्शन प्राप्त करने आते हैं। गुरु में गुरुता (महानता) होती है, वे अकिंचन होते हैं। जब हम संन्यास ग्रहण करते हैं, तो गुरु हमें पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति रूपी तेरह करोड़ की आध्यात्मिक संपत्ति प्रदान करते हैं। अकिंचन व्यक्ति ही संपूर्ण लोक का स्वामी होता है। जो व्यक्ति अकिंचन होता है, वह स्वयं भी सुखी होता है और चक्रवर्ती सम्राट तक उसका सम्मान करते हैं। पूज्यवर के स्वागत में तेरापंथी सभा-भुज के अध्यक्ष वाणीभाई मेहता, रसिकभाई मेहता, चंदूभाई संघवी, मुकेश मेहता, अशोकभाई खण्डोल, शांतिलाल जैन, त्रिभुवन सिंघवी ने अपने भावों की अभिव्यक्ति दी। महाप्रज्ञनगर की महिलाओं ने स्वागत गीत का संगान किया। बालिका परी ने अपनी बालसुलभ प्रस्तुति दी। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।